Thursday, February 15, 2007

कांक्रीट का जंगल

कांक्रीट का जंगल है,भयानक इन्सान बसते है |
संभल के रहिये,यहा आस्तीं के सांप डसते है ||
रोने की आवाज़ शोर ही मे दब कर रह जायेगी |
आपके दर्द पर लोग यहां इतनी जोर से हँसते है ||
हर कदम पर एक नया धोखा, एक नयी चाल है |
जहां कुछ दिखाई नही देता अक्सर वही फंसते है ||
दुश्वारियों की ज़मीं है किसी दलदल के मानिंद |
जितना चाहते है निकलना, उतना ही धसते है ||
दो जून की रोटि , तन ढाँकने को कोई कपडा |
"रुह" जाने कितने लौग इसी बात को तरसते है ||

No comments:

Post a Comment