Monday, May 14, 2007

कांक्रिट का दरख्त

आखीर वो गिर गया !

फलदार नही था पर
छाँव देता था आने जाने वालो को,
मैं भी कई बार उस छाँव मे सुस्ताया था |
कभी - कभी उसकी सुखी लकडीयां
कुछ मजदुर औरते ले जाती थी,
खाना बनाने को शायद |
पास के खंबे पर बैठे परींदे
अपना घोसला वहीं बनाते थे,
नया जीवन वहां किलकारीयां लेता था
कल्लू मोची उसके निचे ही
अपनी छोटी सी दुकान लगाता था

आखीर वो गिर गया !
खडा था जाने कब से
उस जमीन पर ,
अब जो प्लाँट हो कहलाती है,
और मैन रोड पर ही है |

सुना है ऐसीड डाला था उसकी जडों मे,
ताकी गिर जाये अपनेआप,
वन विभाग उसे काटने जो नही देता था |

आखीर वो गिर गया !
वो हराभरा दरख्त |

सुना है अब यहां
एक कांक्रिट का दरख्त लगेगा |

3 comments:

  1. ऋषिकेश बहुत सुंदर भाव-पूर्ण रचना है,..
    बडी दुख भरी कथा के साथ रचना प्रस्तुत की है...
    बधाई!

    सुनीता(शानू)

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  2. ऋषिकेश जी,
    सुन्दर भाव भरी रचना है आप की... कुछ व्याकर की गलतियां है जिनके सुधार की आवश्यकता है...

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  3. भाव तो अच्छे हैं.... पर शब्दों के बुरे उचारंनों ने मज़ा किरकिरा किया.... आपने हर जगह गिर गया को गीर गया लिखा.... अगली बार कविता की प्रस्तुती पर भी मेहनत कीजियेगा ...

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