मन बंजारा यहाँ-वहाँ डोल रहा है ,
सब खिड़की-दरवाज़े खोल रहा है |
सीधी रेखा पर चलने की चाह मे ,
देखा तो धरा पर सब गोल रहा है |
जहाँ से चला है वहीं पहूंचेगा ,
भटकता कहाँ है ,मन बोल रहा है |
आसमाँ को छू लूं, इसी ख्वाहिश मे ,
कल्पना का पांखी परों को तोल रहा है |
शब्द ना सही कोई आकार तो बने ,
इसलिए हाथ ये स्याही ढोल रहा हैं |
Poem grab it's form with every passing line...finally it takes a shape which gives a new motive to lines...
ReplyDeleteMindblowing imagination:-
आसमाँ को छू लूं, इसी ख्वाहिश मे ,
कल्पना का पांखी परों को तोल रहा है |
Bottom line of poem:-
शब्द ना सही कोई आकार तो बने ,
इसलिए हाथ ये स्याही ढोल रहा हैं |
Simply Superb...
val here...really good one...
ReplyDeleteबढ़िया है ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
भटकता कहाँ है ,मन बोल रहा है |
ReplyDeleteआसमाँ को छू लूं, इसी ख्वाहिश मे ,
bahut khoob
यह पंक्ति पसंद आई-
ReplyDeleteसीधी रेखा पर चलने की चाह मे ,
देखा तो धरा पर सब गोल रहा है |
chalo chai pine bhai !
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