Monday, August 20, 2007

मन बंजारा

मन बंजारा यहाँ-वहाँ डोल रहा है ,
सब खिड़की-दरवाज़े खोल रहा है |
सीधी रेखा पर चलने की चाह मे ,
देखा तो धरा पर सब गोल रहा है |
जहाँ से चला है वहीं पहूंचेगा ,
भटकता कहाँ है ,मन बोल रहा है |
आसमाँ को छू लूं, इसी ख्वाहिश मे ,
कल्पना का पांखी परों को तोल रहा है |
शब्द ना सही कोई आकार तो बने ,
इसलिए हाथ ये स्याही ढोल रहा हैं |

6 comments:

  1. Poem grab it's form with every passing line...finally it takes a shape which gives a new motive to lines...

    Mindblowing imagination:-
    आसमाँ को छू लूं, इसी ख्वाहिश मे ,
    कल्पना का पांखी परों को तोल रहा है |

    Bottom line of poem:-
    शब्द ना सही कोई आकार तो बने ,
    इसलिए हाथ ये स्याही ढोल रहा हैं |

    Simply Superb...

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  2. बढ़िया है ।
    घुघूती बासूती

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  3. भटकता कहाँ है ,मन बोल रहा है |
    आसमाँ को छू लूं, इसी ख्वाहिश मे ,

    bahut khoob

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  4. यह पंक्ति पसंद आई-

    सीधी रेखा पर चलने की चाह मे ,
    देखा तो धरा पर सब गोल रहा है |

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  5. chalo chai pine bhai !

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