महानगर का काव्य
ऋषिकेश खोङके "रुह"
Sunday, September 30, 2007
मन के हाइकु
सोचा बहूत ,
निर्विचार ही रहा
उदास मन |
हवा से तेज,
दौडा मन पखेरु,
स्थिर ही रहा |
अक्षर झरे,
विलोपे रूप सारे,
रहा तो मन |
रुके ना मन ,
जल थल आकाश,
सहसा चले |
सहस्त्रधार,
काया एक अनेक,
एक ही मन |
‹
›
Home
View web version