Wednesday, April 30, 2025

दिल लगाने का (ग़ज़ल)

दिल लगाने का इनआम देना पड़ा।
अपने अहसास को नाम देना पड़ा।।

थरथराई ज़बां, लड़खड़ा भी गई ।
आँख को होंठ का काम  देना पड़ा ।।

हसरतों की तपिश में जले हम बहुत।
फिर हवाओं को इल्ज़ाम देना पड़ा।।

जब लिपटती रही धूप सी हिज्र की
वस्ल की छाँव को काम देना पड़ा।।

मैं जिसे रात सारी रहा ढूँढता ।
ख़्वाब में उसको आराम देना पड़ा।।

तितलियाँ रंग सारा गई लूट कर ।
बाग को खुद ही गुलफाम देना पड़ा।।

"रूह" काग़ज़ पे जज़्बात लिखता रहा ।
दास्ताँ को ग़ज़ल नाम देना पड़ा।।

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