Saturday, September 19, 2020

इक मर्ज ने सब बिगाड़ दिया।

 इक मर्ज ने सब बिगाड़ दिया।

आसरा कितनो का उजाड़ दिया ।।

भूख से बिलबिलाता था वो बच्चा।

तो खाना कचरे से जुगाड दिया।।

ज़िन्दगी की खातिर मिलों चल के,

मैराथन विजेता पछाड़ दिया।।

चलते चलते जो रुका सदा को,

वहीं सड़क किनारे गाड़ दिया ।।

जिसकी भी जहां जब थकी सांसे।

जिस्म से "रूह" को उखाड़ दिया ।।

Friday, September 11, 2020

पीढ़ा की आंच को ज़लने दो

अति पीढ़ा में 
दीर्घ काल तक बने रहना,
पीढ़ा को भुला देता है।

देखता हूं हम सब भी,
भूल चले हैं,
की किस अति भयावह संकट से,
 हम झुझ रहे हैं ।
भूल चले हैं,
की संकट नहीं टला है,
भूल चले हैं,
की सब कुछ ठीक नहीं हुआ है।
शतुरमुर्ग की तरह सर बालू में छुपा लेना,
खुद को दिलासा देना ही मात्र है,
मगर हम जानते हुवे भी ना सिर्फ,
अनभिज्ञ सा व्यवहार कर रहें हैं,
अपितू संकट को भयावह स्वरूप प्रदान करने के
वाहक बन रहे हैं।

देखता हूं मै,
अब सब निश्चिंक है,
की हम ठीक है और
कोई और है जो शायद नश्वर है।

रोजी रोटी,
कोई शायद इसीलिए मजबुर है,
पर सच में क्या सभी?
नहीं कुछ मजबुर नहीं ,
मात्र इंग्लिश शब्द के अनुसार बोर हैं।
रास्तों पर टूट पड़ने को आतुर,
मानसिक मनोरंजन के राही ये,
अपराधी ,समाज व सरकार के,
नहीं जानते,
मानवता ने क्या कुछ खोया है।

पीढ़ा में कोई नहीं बने रहना चाहता !
ना तुम , ना मै ।
और ना वो जो पापी पेट के लिए सड़क पर है,
पर सोचो क्या तुम जो अब भीड़ में हो,
क्या सच में जरूरी इस भीड़ का हिस्सा हो।

अति पीढ़ा में 
दीर्घ काल तक बने रहना,
पीढ़ा को भुला देता,
पर इस पीढ़ा की आंच को ज़लने दो।

*ऋषिकेश खो़डके "रूह"*