Thursday, April 19, 2007

बंदर मामा

बंदर मामा,बंदर मामा,
समझे खुद को सयाना,
चने रखे थे कुप्पी मे,
चाहता था उसको चुराना |
कुप्पी मे हाथ डाल कर,
सोचा उसने चने निकालु,
एक दो से होगा क्या,
पुरी मुठ्ठी भर डालूं |
पर उसका हाथ न निकले,
जोर से यहां वहां उछले,
बंदर मामा कुछ न समझे,
आखीर हाथ कैसे निकले |
उछल कुद मे कुप्पी फुटी,
चोट खाई बंदर मामा ने,
लौगो ने मार भगाया,
मिला न उसको दाना रे |

नयनो की भाषा बोलो तुम

नयनो की भाषा बोलो तुम
मूक ये बोली बडी निराली है |

शब्द व्यर्थ शोर करते है
अर्थ का अनर्थ करते है
प्रित की भाषा के फुल
यूं खिलने से डरते है

संवाद मे मद घोलो तुम
आंखे तुम्हारी मतवाली है |

गणीत व्याकरण का भूलो
मन के हिन्डोले झूलो
अपने अंतस की कोमल
भावनाओ के द्वार छू लो

करो दान सारी भावनाये
चक्षू ये कर्ण से दानी है |

Wednesday, April 18, 2007

सर-पैर

सर बोला पैर से,
तू तुच्छ , मैं महान |

पैर बोला कैसे श्रीमान ?

सर बोला
रे मुरख , तुझे तो कुछ भी न पता है
देख मैं कहां शिखर पर,
और तू जमीन पर धुल मे पडा है |
देख मेरा स्थान सर्वोच्च है
और इसीलिये तु तुच्छ है |

पैर बोला भूलावे मत रहीये श्रीमान,
मुझ से ही है आप का मान,
मैं हूं खडा लेकर आप का बोझ,
मैं ही घुमाता हूं आप को रोज,
जिस दिन मै थक जाउंगा,
आप को शिखर से भूमी पर ले आउंगा |

ह्रदय जो सुनता था सर-पैर का विवाद,
उसने दोनो को दिलाया याद,
किस बात का विवाद करते हो,
क्यो आखीर झगडते हो,
ये शरीर अंगो की एक इकाई है,
और हमारी एकता मे ही
शरीर की भलाई है |

Tuesday, April 17, 2007

मन मे काफी कुछ बतियाने को है

मन मे काफी कुछ बतियाने को है
दुख-सुख और पिडा बताने को है

कोई दिन बचपन के थे सुनहरे ,
खेला करते थे जब शाम-सवेरे,
उम्र का वो पडाव था बडा अनोखा,
वो यादें कभी भी न भुलाने को है|

कोई दिन था जब साथ था उजाला,
सब था रोशन,न था कुछ भी काला,
वो गुज़रा हुआ वक़्त अब महज,
एक दास्तां है , बस सुनाने को है |

आज समय अलग है एकदम,
करना है बहूत ,वक़्त है कम,
कंधे टुट कर गीर जायेंगे,बोझ,
इतना सारा कांधो पे उठाने को है |

तालीबान का भारतीयकरण

ब्रेकिंग न्यूज : १. भोपाल मे धर्म के ठेकेदारों द्वारा हिंदू-मुस्लिम विवाह पर हंगामा | २. स्टार न्यूज पर धर्म के ठेकेदारों का हमला | ३. शील्पा शेट्टी पर फिर धर्म के ठेकेदारों ने मचाया बवाल | ये तो मात्र कुछ ताजा उदारहण है जो मुझे याद है किन्तु एसे अनेक उदारहण दिये जा सकते है | तो हम और आप इसे क्या कहेंगे ? मैं तो इसे तालीबान का भारतीय संसकरण कहना पसंद करुंगा |

कुछ लौग जो किसी भी धर्म विशेष के हो सकते है अपने आप को धर्म एवं संक्रुति का रक्षक कहते है और इसकी रक्षार्थ स्वयं को कुछ भी करने का अधिकारी मानते है , अक्सर अपने विरोध अभीयानो मे तालीबानी बर्बता का परीचय देते रहते हैं | क्या समाज इनको ये अधिकार देता है ? क्या आप और मैं इन सब के लिये राजी है ? शायद नही , क्योकीं एक आम आदमी के पास इन सब बातों के लिये समय ही नही है | आम आदमी अपनी रोजी-रोटि की चिंता मे चिता समान जल ही रहा होता है की ये धर्म के ठेकेदार उसमे होम करने आ जाते है और आम आदमी की समस्याओं को बडा देते है | देश मे बंद का एलान एक सामान्य उदारहण है जो ये लौग गाहै-बगाहै करते रहते है , क्या इन धर्म के ठेकेदारों ने कभी सोचा है की इस सब से समस्या हल होने वाली है या और ये बंद १ गरीब की समस्या बडाने वाला है जीसे अपने परीवार का पेट पालने की चिंता है और बंद के कारण उसका चुल्हा आज नही जल पायेगा |

किंतु मेरी समझ मे समस्या का मुल ये धर्म के ठेकेदार नही है अपितू बडी संख्या मे अशीक्षित एवं बेरोजगार लोगो का होना है जो ये समझ ही नही पाते की कुछ लौग अपनी राजनेतिक रोटिंया सेंकने के लिये इनका प्रयोग करते है और व्यर्थ ही धार्मीक उन्माद खडा कर देते है | यदी सरकार इस समस्या से निदान पाना चाहती है तो उसे शिक्षा कार्यक्रमों की गति बढानी होगी और रोजगार के अवसर पैदा करने होंगे ताकी जनता के पास धर्म के ठेकेदारों को सुनने का समय ही न हो और यदि सुने भी तो सही-गलत के पहचान की क्षमता हो |

बचपन के हाइकु

भूलें तो कैसे

बचपन के दिन

गुड्डे गुडिया


मिट्टि के घर

वो रेत के घरोंदे

बच्चो के खेल


सोते समय

दादी की कहनियां

राजा रानी की


जिद करना

रोकर मना लेना

जो चाहो पाना

होली के हाईकु

टेसु के रंग

फागुन की बयार

होली की धुम



रंगो का खेल

गालों पे गुलाल

हाथ अबीर



बच्चो का शोर

रंग भरी पिचकारी

लो भर मारी



घोटि ठंडाई

देखो झुमे कन्हाई

हुवे मलंग



जली होलिका

विनाशी बुराई भी

बचा पूण्य क्या ?

तुम पुछते हो कि क्यो लिखता हूं ?

तुम पुछते हो कि क्यो लिखता हूं ?


सुबह जब सुरज निकलता है

सांझ जब आती है शरमा कर

चांद जब रुख से नकाब हटाता है

तुम्हे पता है तब गीत बनता है ?


क्या छंद झरने की कलकल का ,

क्या कोयल की कुहूक की कविता ,

क्या काव्य हवा की सरसराहट का ,

कभी सुना है तुम्हारे कानो ने ?


सडकों पर जब दंगे होते है,

इंसानीयत के चेहरे नंगे होते है ,

लहू से जब हाथ रंगे होते है,

उस पिडा को शब्द दिये है कभी ?


ये सब जो तुम नही करते महसुस,

मै शब्दों मे ढालता हूं , सो लिखता हूं |

चांद

इमारतों के मध्य से भी,
अच्छा लगता है चांद देखना |

कभी छत पर खडे हो कर,
कभी खिडकीयों से झांक कर,
और कभी बरामदे से ताकते हुवे,

कभी संकरी गलियों से,
कभी सडकों से गुजरते हुवे,
गर्दन थोडी सी उठा कर,

हर कोई चांद देखता है,
अपना - अपना नाम देता है |

कभी बच्चो का चंदा मामा,
कभी सुहागीन का तीज का चांद
कभी प्रेमी का चौदवी का चांद,
कभी गरीब की रोटी सा चांद |

इमारतों के मध्य से ही शायद
इतना अच्छा लगेगा चांद देखना |

पैसा नही तो शरीर बेच दिया जायेगा

पैसा नही तो शरीर बेच दिया जायेगा |
जीने के लिये कुछ तो किया जायेगा ||
किटाणू रहीत हो की सहीत हो,पानी है |
प्यास लगे तो जो मिले पीया जायेगा ||
अन्न सुई,रोटी धागा मिल जाये तो |
भूख से फटे इस पेट को सिया जायेगा ||
कल क्या करेंगे ये क्या सोचे अभी से |
चिंता ये है की आज कैसे जिया जायेगा ||
मात्र धन कमाने की कवायद को "रुह" |
मरेगा कोई तो कोई मार दिया जायेगा |