Thursday, April 19, 2007

बंदर मामा

बंदर मामा,बंदर मामा,
समझे खुद को सयाना,
चने रखे थे कुप्पी मे,
चाहता था उसको चुराना |
कुप्पी मे हाथ डाल कर,
सोचा उसने चने निकालु,
एक दो से होगा क्या,
पुरी मुठ्ठी भर डालूं |
पर उसका हाथ न निकले,
जोर से यहां वहां उछले,
बंदर मामा कुछ न समझे,
आखीर हाथ कैसे निकले |
उछल कुद मे कुप्पी फुटी,
चोट खाई बंदर मामा ने,
लौगो ने मार भगाया,
मिला न उसको दाना रे |

8 comments:

Trisha said...

very nice kavya. i liked it.

राजीव रंजन प्रसाद said...

बाल गीत सुन्दर है...मैं अपनी बिटिया को भी सिखाउंगा..

*** राजीव रंजन प्रसाद

शैलेश भारतवासी said...

बंदर मामा की दुर्दशा पढ़कर मज़ा आ गया।

Unknown said...

Rishi anna, aisa lag raha hai thode dino main tera profession change hone wala hai. Achhi kavita likhi hai...

A dreamer who lost in a night world said...

hi ur poem is very nice realy ...................


but try to think about some difrent actvity of ur bandar mama . i think u will enjoy them more ................


karan kant sharma{iitd}

Unknown said...

बहुत मजेदार कविता। आगे भी ऐसी कविताएँ प्रकाशित करते रहिएगा।
तुषार मुखर्जी।
ढालीगाँव (असम)।
भारत।

Anonymous said...

baaki sab to theek hai, par rishiji apke mama bandar kaise...

ऋषिकेश खोडके रुह said...

I am very sorry to heart your feelings chewnti :).