इमारतों के मध्य से भी,
अच्छा लगता है चांद देखना |
कभी छत पर खडे हो कर,
कभी खिडकीयों से झांक कर,
और कभी बरामदे से ताकते हुवे,
कभी संकरी गलियों से,
कभी सडकों से गुजरते हुवे,
गर्दन थोडी सी उठा कर,
हर कोई चांद देखता है,
अपना - अपना नाम देता है |
कभी बच्चो का चंदा मामा,
कभी सुहागीन का तीज का चांद
कभी प्रेमी का चौदवी का चांद,
कभी गरीब की रोटी सा चांद |
इमारतों के मध्य से ही शायद
इतना अच्छा लगेगा चांद देखना |
Tuesday, April 17, 2007
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