Tuesday, December 11, 2007

रचनाकार चिट्ठा स्थल पर मेरी रचनाये पढे

प्रिय मित्रों,
मुझे ये बताते हुवे हर्ष हो रहा है की रचनाकार चिट्ठा स्थल ने मेरी रचना को मे स्थान दिया है | आप मेरी रचना रचनाकार चिट्ठा स्थल की निम्न लिंक पर जा कर पढ सकते है एवं अपने विचार वहाँ रख सकते हैं |

http://rachanakar.blogspot.com/2007/09/blog-post.html

साहित्य-कुञ्ज पर मेरी रचनाये पढ

प्रिय मित्रों,
मुझे ये बताते हुवे हर्ष हो रहा है की साहित्य-कुञ्ज (अंन्तरजाल पर साहित्य प्रेमियों की विश्राम स्थली) ने मेरी रचनाओं को अपने दिसंबर अंक मे स्थान दिया है | आप मेरी रचनाये साहित्य-कुञ्ज की निम्न लिंक पर जा कर पढ सकते है एवं अपने विचार वहाँ रख सकते हैं |
1.
http://www.sahityakunj.net/ThisIssue/Ankkavita/Ankkavitani_main9.htm


2. http://www.sahityakunj.net/ThisIssue/Ankkavita/Ankkavitani_main10.htm

Wednesday, November 21, 2007

शब्द-यज्ञ की समीक्षा

'शब्द यज्ञ' परिवेश और प्रकृति की अनुभूतियों को सार्थकता प्रदान करती रचनाएं


प्रकृति , परिवेश और अपनी दिनचर्या से जुड़ी सकारात्मक और नकारात्मक अनुभूतियों से मनुष्य का जीवन विलग नहीं हो पाता बाल्यकाल , युवा अवस्था व वृद्धावस्था के दौर में मानव मन पर परिवेश का व्यापक प्रभाव पड़ता है इन प्रभावों को अभिव्यक्ति देने की प्रायः सभी में विशेष उत्कंठा और अभिलाषा होती है इसी तरह उत्कंठाओं और अभिलाषाओं को जब व्यक्ति शब्दों में पिरोने का प्रयास कर उसको सार्वजनिक करता है और उसमें मन के भावों को उतारकर रसमय करता है , वह कविता होती है

युवा कवि ऋषिकेश खोडके "रुह" भी अपनी रचनाओं के शब्द-यज्ञ में अपनी अनुभूतियों को कामयाबी के साथ प्रकट करने के लिये आतुर दिखाई दे रहे हैं वे बड़ी दिलेरी के साथ कविता के संसार में प्रवेश कर रहे हैं उनके परिजनों से मिली प्रेरणाओं को वे अपने काव्यलेखन का मार्गदर्शन मानते है अभी तक काव्य-यात्रा में उन्होंने जितनी दूरी तय की है, उसको नापने के लिये उन्होंने इस काव्य संग्रह को एक पैमाने के रुप में समाज के सामने प्रस्तुत करने का उपक्रम किया है इस युवा कवि की रचनाओं में भावतत्वों के प्रधानता के साथ ही प्रस्तुतिकरण में जिस तरह की उपमाएँ, बिम्ब और प्रतीक देखने को मिल रहे हैं , उसमें इस कवि में काव्य भविष्य की अपार संभावनाऍ परिलक्षित होती हैं

' थकान लिपि' कविता में दिनभर की आपधापी और उसके तन और मन पर होने वाले प्रभाव तथा रात्रि विश्राम के बाद फिर एक नये दिन के शुरुआत को जिन बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से प्रतुत किया गया है उससे कवि का काव्यज्ञान निखरता हुआ प्रतीत होता है

'थकान लिपि , लिख दी अंगो पर/दिन की दौङ-धूप ने शाम/बोझल पलकें,

आलस्य/थकावट का अनुभव/क्षणिक सी पीङा/हल्का सा दर्द

अंगों पर ना जाने क्या-क्या/लिखा गया रात होते होते'

इस रचना में कवि के मन-मस्तिष्क में दिनचर्या के प्रभावों का सटीक और सार्थक प्रतुतिकरण है , साथ ही अगली दिनचर्या के लिए नई ताजगी के साथ तैयार रहने का संकेत भी इस रचना की विशेषता है 'प्रार्थी-भाव ' और ' धूप' रचनाओं में प्रकृति के प्रवृत्ति को प्रस्तुत करने हुए उसके साथ मानव मन के समन्वय भाव को जोङने का एक अच्छा दृश्य देखने को मिलता है

'रात का समय/कङाके की ठंड/जर्जर झोपङी

अनचाहे छिद्रों की खिङकियाँ/हवा का प्रवेश अनाधिकृत'

'हटाया जब मैंने/परदा,खिङकी पर से ,/खिङकी पर झूलती धूप/

कर गई प्रवेश कमरे में/और लिपट गयी/मुस्कुराकर मेरे बदन से'

कुछ कविताएँ ऐसी भी है जिसमें आशा , निराशा ,दय, करुणा और संवेदनाओं के भाव की प्रधानता है इस भावों के उद्‌गार निम्न पंक्तियों मे झलकते हैं

'... की अचानक/जिंगदी ने छिंक दिया/रोज की तरह/एकदम, मौके पर..

...हाथ से आईना/ज़िंदगी का/अचानक छिटक गया /टूट गया/और टूट गई सारी आशाऐं.. '

' संवाद भाषा' रचाना में प्रेम की अभिव्यक्ति का उल्लेख सार्थक बन पड़ा है

' तुम जो मौन-मुखर/प्रम पाती भेजोगी/वो अवश्य मुझ तक आएगी

प्रेम की भाषा/नेत्रों की असमर्थता से/बाधा न पायेगी.. '

प्रेम , मिलन ,विरह, उद्वेग और मन के उत्फुल भावों को इस युवा कवि ने अपनी ही शैली मे प्रस्तुत करने का प्रयास किया है अपने अहसासों को प्रस्तुत करने में काव्य-मर्यादा के प्रति भी कवि की सजगता झलकती है

' अहसास की गोद में फैला दी/मैंने कागज की चादर/हाथ में भर हवा में उछाले/कुछ अक्षर मात्राएँ'

गुजरे हुए समय और वर्तमान स्थिति का चित्रण 'पुरानी बस्ती ,गली, मकान' शीर्षक की कविता में जिन प्रतीकों में प्रतुत किया गया है इससे कवि का चित्रण पक्ष मजबूत बन पड़ा है किसी-किसी रचना मे कवि मे भीतर का रहस्यवाद और दर्शन पक्ष उभरकर सामने आया है

' ज़हर तेरे इश्क का/पी लिया है मैंने/कमबख्त ! मौत मगर आती ही नही'

' मैंने सर झुकाया/की प्रार्थना/सम्पूर्ण इयत्ता से/मुझे भी अपने में मिला लो'

' जीवन ! पहला आर्य-सत्य/दुखः ही दुखः/काश मिल जाए कोई गौतम'

' आओ चले सपने ढूंढ़े','मेरे सपने खरीद लो , मुझे हकीकत दे दो ','तन में अंकुर फूटा/तन-फल उगा/मन के तल पर ', जैसी पंक्तियाँ लिखकर कवि ने जीवन के साथ ही पहचान बनाने का प्रयास किया है संग्रह की प्रायः सभी रचनाएँ टिप्पणी की हकदार है , किन्तु कवि के कृतित्व और व्यक्तित्व के मूल्यांकन के लिये कुछ उदारहण ही पर्याप्त होते है कवि ने अपने भावों के प्रकट करने में कहीं-कहीं सिधे बात की है तो कहीं बिम्बों , प्रतीकों और उपमाओं का सहारा बनाया है छंद , अतुकांत औअर मुक्त छंद में आबद्ध रचनाओं मे भाव तत्व और कल्पनाओं का सामंजस्य बिठाने के लिये कवि प्रयासरत है दोहे , गीत और ग़ज़ल को भी कवि अपने भावोभिव्यक्ति का आधार बनाता है

प्रथम काव्य संग्रह की तमन्न लेकर कवि ने जिस तरह की रचनाओं का चयन किया है , इसमें कवि की दृष्टि के अनेक कोण दिखाई देते है भावतत्व , कल्पना और रागात्मकता की कसौटी पर ये रचनाऐं कितनी करी उअतर पाती है ये तो पाठको के मन पर पड़नेवाले प्रभावों से ही स्पष्ट हो सकेगा किन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इस संग्रह की अधिकांश रचनाएँ पाठकों को निराश नही करेंगी

संग्रह की रचनाएं इस बात की पुष्टि के लिये पर्याप्त है कि युवा कवि काव्यमार्ग पर चले की पटरी तलाशने के लिये सही दिशा में आगे कदम रख चुका है आशा है कि यह संग्रह इस कवि के विषय संसार में स्थापित कराने में सफलता अर्जित करेगा

शुभकामना सहित

श्री राजेंद्र जोशी
निदेशक-
राष्ट्रीय हिन्दी अकादमी
रुपाम्बरा
उपाध्यक्ष
म. प्र. लेखक संघ
उपाध्यक्ष
समकालनी सहित्य सम्मेलन

Tuesday, November 6, 2007

दिप उत्सव

इस बार कुछ कारणों से दिप उत्सव अकेले ही मनाना पडेगा सो इस बात से मन जरा उदास हो रहा था और अचानक देखा तो मन से कुछ व्यथा बही और शब्दों का आवरण पहन ये गीत सामने आया |

अकेला हूं घर में तो लगता है, अंधेरा है|

द्वार पर दीपक , खिड़की मे सितारों की माला,
कुछ उंचा आकाश कंदिल भी मैने टांग डाला,
मगर दिप उत्सव ने यहाँ मुँह नही फेरा है,
अकेला हूं घर में तो लगता है, अंधेरा है|

बाहर उत्सव का शोर है, रात में भी भोर है,
सब चेहरे वही है मगर चेहरों का रंग और है,
ढुंढता हूं कहाँ प्रिये चेहरा तेरा सुनहरा है
अकेला हूं घर में तो लगता है, अंधेरा है|

द्वार पर पत्तों का मंडप,हर घर रांगोली ,
भेंटथाल के बहाने गुंजेगी हर घर बोली,
यहां मगर लगे की एकांत का पहरा है ,
अकेला हूं घर में तो लगता है, अंधेरा है|

Sunday, November 4, 2007

मेरे प्रथम काव्य संग्रह "शब्द यज्ञ" का लोकार्पण समारोह विवरण

स्नेही मित्रों,

दिनांक २६ अक्टूबर २००७ को मेरे प्रथम काव्य संग्रह "शब्द यज्ञ" का लोकार्पण समारोह हिन्दी भवन (महादेवी वर्मा कक्ष) मे सम्पन्न हुआ | माननीय श्री देवेन्द्र दीपक जी (निर्देशक,म.प्र. साहित्य अकादमी) ने समारोह के मुख्य अतिथि होने का एवं माननीय श्री कैलाशचन्द्र पंत जी (महामंत्री, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति) ने समारोह के विशिष्ट अतिथि होने का सम्मान हमे दिया | कार्यक्रम की अध्यक्षता माननीय श्री राजेन्द जोशी (वरिष्ट पत्रकार एवं साहित्यकार) जी द्वारा की गई |
समारोह का संचालन श्रीमति साधना शुक्ला जी(सचिव, प्रखर 'सामाजिक,साहित्यक एवं सांस्कृतिक संस्था')द्वार किया गया साथ ही इस कार्यक्रम को सफल बनाने एवं इस काव्य संग्रह को पाठको समक्ष लाने मे भी श्रीमति साधना शुक्ला जी(सचिव, प्रखर) का अतुलनीय प्रयास रहा |

लोकार्पण समारोह का प्रारंभ दिप प्रज्वलन एवं सरस्वती वन्दना से किया गया तदोपरांत प्रखर संस्था द्वारा साहित्य जगत के अतिवरिष्ठ साहित्यकारों १. श्रीमती निर्मला जोशी २. श्री चन्दप्रकाश जायसवाल ३. श्रीमती शीला टंडन ४. कु. इअनिड जोब ५. श्री महेश सक्सेना ५. श्रीमती प्रमिला नवल का सम्मान श्रीफल एवं शाल द्वारा किया गया एवं इसके बाद मुख्य अतिथियों का भी श्रीफल एवं शाल द्वारा सम्मान किया गया |

"शब्द यज्ञ" का लोकार्पण मुख्य अतिथियों माननीय श्री देवेन्द्र दीपक जी , माननीय श्री कैलाशचन्द्र पंत जी ,माननीय श्री राजेन्द जोशी के द्वारा किया गया एवं एक प्रती मुख्य अतिथियों ने अपने हस्ताक्षर कर मुझे प्रदान की |

"शब्द यज्ञ" काव्य संग्रह की समिक्षा श्री हूकूम सिंह 'विकल' एवं श्रीमति शीला टंडन द्वारा की गई और मेरे इस संग्रह मे क्या अच्छा है और कहां सुधार की आवश्यक्ता है का मार्गदर्शन मुझे प्रदान किया |
श्री 'विकल' जी ने अपने सम्भाषण मे कहा की कवि अपनी भाषा से सम्मोहित करता है और उचित शब्दों का उचित स्थल पर कुशलता के साथ प्रयोग करता है , कवि भविष्य के लिये आशा प्रदान करता है किन्तु संग्रह मे प्रकाशन संबन्धी कुछ त्रुटिया रह गई है जो खटकती है |
श्रीमति शीला टंडन जी ने अपने सम्भाषण मे कहा की कवि मुलत: रहस्यवादी कविता का पोषक है किन्तु प्रेम , समाज की भी चिन्ता करता है और शब्दों की कुशलता से चादर बुनता है | कवि की कविता आपको मन की गहराईयों मे भी ले जाती है किन्तु प्रकाशन संबन्धी कुछ त्रुटिया रह गई है और कवि को क्लिश्ट शब्दों के प्रयोग से भी बचना चाहिये |

समिक्षा के उपरांत कार्यक्रम की संचालक श्रीमति साधना शुक्ला जी द्वार मुझसे काव्य पाठ करने को कहा गया और इस अवसर पर मैने अपनी कुछ कविताये १. शब्द यज्ञ २. थकान लिपि ३. अपशगुन ४. गाथा नई पुरानी ५. मैं कम्बख्त का पाठ किया |

इसके उपरांत मुख्य अतिथियों द्वार सम्भाषण प्रस्तुत किया गया

माननीय श्री कैलाशचन्द्र पंत जी अपने सम्भाषण मे कहते है कवी कि कविताओं को पढने पर पता चलता है की कवि सोच का धनी है और शब्दों के प्रयोग मे कुशल है , और विभिन्न कविताये कवि के संस्कार , समाजिक चिंतन , युवा प्रेम और उद्वेग को दर्शाती है | एक कविता 'दो क्षण' की विवेचना करते हुवे पंत जी कहते है इस कविता का प्रारंभ प्रेमभाव से होता है किन्तु अंत मे प्रेयसि को तुलसी तले दिपक जलाते हुवे प्रेम का विलक्षण विचार कवि के युवा मन के रोपित संस्कार को बताती है |

माननीय श्री देवेन्द्र दीपक जी अपने सम्भाषण स्पष्ट शब्दों मे कहते है की समारोह मे आने के पहले मैने कवि को नही पढा और मैं सोच रहा था की नया कवि , प्रथम संग्रह जाया जाये या नहीं पर यहां आने के बाद और कवि के संग्रह की कुछ कवितायें पढ कर लग रहा है आना व्यर्थ नहीं हुआ |


माननीय श्री राजेन्द जोशी जी अपने सम्भाषण मे कहते है एक अहिन्दीभाषि कवि से इस प्रकार की कविताओं की आशा नहीं थी अत: कुछ त्रुटियों को छोडा जा सकता है | कवि शब्दों का अनुठा प्रयोग करने का साहस रखता है , ये थकान को लिपि की तरहा परिभाषित करता है , कृष्ण को भी याद करता है और तुलसी तले दिप जलाती प्रेयसी की भी कल्पना करता है , चन्दा मामा को हि-मेन के आगे चुका हुवा देखने की पिडा व्यक्त करता है, ग़म को जश्न की तरहा मनात है और रहस्यवाद का भी कविता मे पोषण करता है एवं कुछ प्रयास हिन्दी ग़ज़ल को लेकर भी करता है तो कुल मिलाकर कवि का आने वाल कल उज्वल दिखता है |

एवं अंत मे मेरे पिताजी श्री अरविन्द खोडके जी द्वार आभार प्रकट किया गया तथा मेरे नाना , नानी एवं दादी को मंच पर मुझे आशीर्वाद देने के आमंत्रित किया गया एवं कार्यक्रम की संचालक श्रीमति साधना शुक्ला जी का सम्मान मेरी माताजी श्रीमती किरण खोडके द्वारा किया गया |

समारोह के अंत मे पुस्तक को विक्रय के लिये रखा गया |


स्नेही मित्रों से निवेदन है की यदी वो भी पूस्तक की प्रति चाहते हो तो कृपया ७०/- रुपये (पुस्तक का मुल्य) का डि.डि अथवा मनिआर्डर भेज देवें , पते के लिए मुझे मेल करे , प्रेषण का खर्च मैं स्वयं वहन करुंगा |







धन्यवाद
ऋषिकेश खोडके "रुह"

Sunday, September 30, 2007

मन के हाइकु


सोचा बहूत ,
निर्विचार ही रहा
उदास मन |

हवा से तेज,
दौडा मन पखेरु,
स्थिर ही रहा |

अक्षर झरे,
विलोपे रूप सारे,
रहा तो मन |

रुके ना मन ,
जल थल आकाश,
सहसा चले |

सहस्त्रधार,
काया एक अनेक,
एक ही मन |

Wednesday, August 29, 2007

आधारभूत कारण है संवेदक मेरी वेदना

'हिन्द-युग्म' पर 'काव्य-पल्लवन' के अंतरगत प्रकाशित मेरी नयी कविता "आधारभूत कारण है संवेदक मेरी वेदना" को पढ़ने और उस पर अपने विचार और टिप्पणियाँ देने के लिये, कृपया यहाँ पधारें:-
आधारभूत कारण है संवेदक मेरी वेदना

Monday, August 20, 2007

मन बंजारा

मन बंजारा यहाँ-वहाँ डोल रहा है ,
सब खिड़की-दरवाज़े खोल रहा है |
सीधी रेखा पर चलने की चाह मे ,
देखा तो धरा पर सब गोल रहा है |
जहाँ से चला है वहीं पहूंचेगा ,
भटकता कहाँ है ,मन बोल रहा है |
आसमाँ को छू लूं, इसी ख्वाहिश मे ,
कल्पना का पांखी परों को तोल रहा है |
शब्द ना सही कोई आकार तो बने ,
इसलिए हाथ ये स्याही ढोल रहा हैं |

Friday, July 27, 2007

हां ! मैं तन बेचती हूं, तो क्या ?

मैं तन बेचती हूं !
हां ! मैं तन बेचती हूं, तो क्या ?

इस मंडी मे डाल गया था कोई अपना ही ,
कच्ची कली ही थी तब मै,
मुझे तो था कुछ भी पता नही |

उम्रभर का ग्रहण ,
मेरे जीवन पर लगा गया,
रातो को किसी की करने रोशन |

कई दिन और रातें भुखी ही काटी थी,
बेल्ट,लात और मुक्को से थर्थराई थी,
आखीरकार जोरजबरदस्ती से नथ किसी ने उतरवाई थी |

अब रोज़ कोई ना कोई जानवर,
नोचता है , खसोटता है जिस्म मेरा,
मर्द साले सब आदमखोर |

क्यो नहीं पुछते इनसे ,
जिन्होने अपन ज़मीर बेच डाला,
मैं तन बेचती हूं, तो क्या ?

Monday, July 23, 2007

अरे रुक जा रे बन्दे

अरे रुक जा रे बन्दे,

वो मर चुका है ,
वो जल चुका है |
अब आग लगाते हो कहाँ,
था आशीयाँ जिसका वो गुज़र चुका है |

बंद कर ये लहू बहाना,
नफरत की फसल उगाना,
काट ये आग उगलते नाखून,
जाने कितनी जिंदगी खुरच चुका है |

छाती तेरी कब ठंडक पायेगी,
मुर्दो की बस्ती तुझे कब तक भायेगी,
ये सफेदी का काला रंग कहां तक उडायेगा,
तेर घर भी रंग ये निगल चुका है |

अरे रुक जा रे बन्दे, रुक जा,
वापसी का दरवाजा हमेशा खुला है |

Monday, May 21, 2007

मुझे देख कर

मुझे देख कर,
आप मेरे प्रेम मे पड सकते है ,
खो सकते है मेरी आँखो के समंदर मे |

मुझे देख कर,
आप मुझे दार्शनिक भी समझ सकते है,
मेरे भाव सुकरात की तरहा लग सकते हैं आप को |

मुझे देख कर,
आप घ्रृणा भी कर सकते हैं मुझ से,
मेरे अंदर का जानवर आप को डरा सकता है |

मुझे देख कर,
आपका मन वात्सल्य से भर आ सकता है,
आप मेरे अंदर किसी शिशु को पा सकते हैं |

मुझे देख कर,
आप को लग सकता है यही नायक है,
मेरे चेहरे का तेज आपका मस्तक झुका सकता है |

मुझे देख कर,
आप को दया भी आ सकती है,
मेरी दयनीयता आपको रुला सकती है |

मुझे देख कर,
कई विचार उठेंगे आपके मन मे ,
क्योकी मेरे आयाम अनंत है,और क्षमतायें अनंत
मैं क्रृष्ण भी हो सकता हूं,
और मैं रावण भी |

मुझे देख कर,
आप सोचते होंगे मैं कौन हूं ?
मैं हूं मानव !

Friday, May 18, 2007

पगडंडी

पगडंडी हूं मैं पगडंडी,
खेतों से इठलाती चली |

चने के पौधों को सहलाते,
गेहूं के पास से बल खाते,
इस छोर से उस छोर,
चली मैं मदमदाती चली |

कभी तीखी धूप मे हांफते,
आम की छांव मे सुस्ताते,
कभी बारीश मे नहाती मैं,
गीत ऋत का सुनाती चली |

नर-नारी , बच्चे ,मवेशी ,
ट्रेक्टर और ट्रक कभी-कभी,
हर आने जाने वाले को
लाती चली मै लेजाती चली |

आ गई अब उम्र की ढलान,
खत्म हो रहे खेत-खलिहान,
कभी छोडे थे कदमों के निशां,
ये पीढ़ी उनको मिटाती चली |

Monday, May 14, 2007

कांक्रिट का दरख्त

आखीर वो गिर गया !

फलदार नही था पर
छाँव देता था आने जाने वालो को,
मैं भी कई बार उस छाँव मे सुस्ताया था |
कभी - कभी उसकी सुखी लकडीयां
कुछ मजदुर औरते ले जाती थी,
खाना बनाने को शायद |
पास के खंबे पर बैठे परींदे
अपना घोसला वहीं बनाते थे,
नया जीवन वहां किलकारीयां लेता था
कल्लू मोची उसके निचे ही
अपनी छोटी सी दुकान लगाता था

आखीर वो गिर गया !
खडा था जाने कब से
उस जमीन पर ,
अब जो प्लाँट हो कहलाती है,
और मैन रोड पर ही है |

सुना है ऐसीड डाला था उसकी जडों मे,
ताकी गिर जाये अपनेआप,
वन विभाग उसे काटने जो नही देता था |

आखीर वो गिर गया !
वो हराभरा दरख्त |

सुना है अब यहां
एक कांक्रिट का दरख्त लगेगा |

Thursday, April 19, 2007

बंदर मामा

बंदर मामा,बंदर मामा,
समझे खुद को सयाना,
चने रखे थे कुप्पी मे,
चाहता था उसको चुराना |
कुप्पी मे हाथ डाल कर,
सोचा उसने चने निकालु,
एक दो से होगा क्या,
पुरी मुठ्ठी भर डालूं |
पर उसका हाथ न निकले,
जोर से यहां वहां उछले,
बंदर मामा कुछ न समझे,
आखीर हाथ कैसे निकले |
उछल कुद मे कुप्पी फुटी,
चोट खाई बंदर मामा ने,
लौगो ने मार भगाया,
मिला न उसको दाना रे |

नयनो की भाषा बोलो तुम

नयनो की भाषा बोलो तुम
मूक ये बोली बडी निराली है |

शब्द व्यर्थ शोर करते है
अर्थ का अनर्थ करते है
प्रित की भाषा के फुल
यूं खिलने से डरते है

संवाद मे मद घोलो तुम
आंखे तुम्हारी मतवाली है |

गणीत व्याकरण का भूलो
मन के हिन्डोले झूलो
अपने अंतस की कोमल
भावनाओ के द्वार छू लो

करो दान सारी भावनाये
चक्षू ये कर्ण से दानी है |

Wednesday, April 18, 2007

सर-पैर

सर बोला पैर से,
तू तुच्छ , मैं महान |

पैर बोला कैसे श्रीमान ?

सर बोला
रे मुरख , तुझे तो कुछ भी न पता है
देख मैं कहां शिखर पर,
और तू जमीन पर धुल मे पडा है |
देख मेरा स्थान सर्वोच्च है
और इसीलिये तु तुच्छ है |

पैर बोला भूलावे मत रहीये श्रीमान,
मुझ से ही है आप का मान,
मैं हूं खडा लेकर आप का बोझ,
मैं ही घुमाता हूं आप को रोज,
जिस दिन मै थक जाउंगा,
आप को शिखर से भूमी पर ले आउंगा |

ह्रदय जो सुनता था सर-पैर का विवाद,
उसने दोनो को दिलाया याद,
किस बात का विवाद करते हो,
क्यो आखीर झगडते हो,
ये शरीर अंगो की एक इकाई है,
और हमारी एकता मे ही
शरीर की भलाई है |

Tuesday, April 17, 2007

मन मे काफी कुछ बतियाने को है

मन मे काफी कुछ बतियाने को है
दुख-सुख और पिडा बताने को है

कोई दिन बचपन के थे सुनहरे ,
खेला करते थे जब शाम-सवेरे,
उम्र का वो पडाव था बडा अनोखा,
वो यादें कभी भी न भुलाने को है|

कोई दिन था जब साथ था उजाला,
सब था रोशन,न था कुछ भी काला,
वो गुज़रा हुआ वक़्त अब महज,
एक दास्तां है , बस सुनाने को है |

आज समय अलग है एकदम,
करना है बहूत ,वक़्त है कम,
कंधे टुट कर गीर जायेंगे,बोझ,
इतना सारा कांधो पे उठाने को है |

तालीबान का भारतीयकरण

ब्रेकिंग न्यूज : १. भोपाल मे धर्म के ठेकेदारों द्वारा हिंदू-मुस्लिम विवाह पर हंगामा | २. स्टार न्यूज पर धर्म के ठेकेदारों का हमला | ३. शील्पा शेट्टी पर फिर धर्म के ठेकेदारों ने मचाया बवाल | ये तो मात्र कुछ ताजा उदारहण है जो मुझे याद है किन्तु एसे अनेक उदारहण दिये जा सकते है | तो हम और आप इसे क्या कहेंगे ? मैं तो इसे तालीबान का भारतीय संसकरण कहना पसंद करुंगा |

कुछ लौग जो किसी भी धर्म विशेष के हो सकते है अपने आप को धर्म एवं संक्रुति का रक्षक कहते है और इसकी रक्षार्थ स्वयं को कुछ भी करने का अधिकारी मानते है , अक्सर अपने विरोध अभीयानो मे तालीबानी बर्बता का परीचय देते रहते हैं | क्या समाज इनको ये अधिकार देता है ? क्या आप और मैं इन सब के लिये राजी है ? शायद नही , क्योकीं एक आम आदमी के पास इन सब बातों के लिये समय ही नही है | आम आदमी अपनी रोजी-रोटि की चिंता मे चिता समान जल ही रहा होता है की ये धर्म के ठेकेदार उसमे होम करने आ जाते है और आम आदमी की समस्याओं को बडा देते है | देश मे बंद का एलान एक सामान्य उदारहण है जो ये लौग गाहै-बगाहै करते रहते है , क्या इन धर्म के ठेकेदारों ने कभी सोचा है की इस सब से समस्या हल होने वाली है या और ये बंद १ गरीब की समस्या बडाने वाला है जीसे अपने परीवार का पेट पालने की चिंता है और बंद के कारण उसका चुल्हा आज नही जल पायेगा |

किंतु मेरी समझ मे समस्या का मुल ये धर्म के ठेकेदार नही है अपितू बडी संख्या मे अशीक्षित एवं बेरोजगार लोगो का होना है जो ये समझ ही नही पाते की कुछ लौग अपनी राजनेतिक रोटिंया सेंकने के लिये इनका प्रयोग करते है और व्यर्थ ही धार्मीक उन्माद खडा कर देते है | यदी सरकार इस समस्या से निदान पाना चाहती है तो उसे शिक्षा कार्यक्रमों की गति बढानी होगी और रोजगार के अवसर पैदा करने होंगे ताकी जनता के पास धर्म के ठेकेदारों को सुनने का समय ही न हो और यदि सुने भी तो सही-गलत के पहचान की क्षमता हो |

बचपन के हाइकु

भूलें तो कैसे

बचपन के दिन

गुड्डे गुडिया


मिट्टि के घर

वो रेत के घरोंदे

बच्चो के खेल


सोते समय

दादी की कहनियां

राजा रानी की


जिद करना

रोकर मना लेना

जो चाहो पाना

होली के हाईकु

टेसु के रंग

फागुन की बयार

होली की धुम



रंगो का खेल

गालों पे गुलाल

हाथ अबीर



बच्चो का शोर

रंग भरी पिचकारी

लो भर मारी



घोटि ठंडाई

देखो झुमे कन्हाई

हुवे मलंग



जली होलिका

विनाशी बुराई भी

बचा पूण्य क्या ?

तुम पुछते हो कि क्यो लिखता हूं ?

तुम पुछते हो कि क्यो लिखता हूं ?


सुबह जब सुरज निकलता है

सांझ जब आती है शरमा कर

चांद जब रुख से नकाब हटाता है

तुम्हे पता है तब गीत बनता है ?


क्या छंद झरने की कलकल का ,

क्या कोयल की कुहूक की कविता ,

क्या काव्य हवा की सरसराहट का ,

कभी सुना है तुम्हारे कानो ने ?


सडकों पर जब दंगे होते है,

इंसानीयत के चेहरे नंगे होते है ,

लहू से जब हाथ रंगे होते है,

उस पिडा को शब्द दिये है कभी ?


ये सब जो तुम नही करते महसुस,

मै शब्दों मे ढालता हूं , सो लिखता हूं |

चांद

इमारतों के मध्य से भी,
अच्छा लगता है चांद देखना |

कभी छत पर खडे हो कर,
कभी खिडकीयों से झांक कर,
और कभी बरामदे से ताकते हुवे,

कभी संकरी गलियों से,
कभी सडकों से गुजरते हुवे,
गर्दन थोडी सी उठा कर,

हर कोई चांद देखता है,
अपना - अपना नाम देता है |

कभी बच्चो का चंदा मामा,
कभी सुहागीन का तीज का चांद
कभी प्रेमी का चौदवी का चांद,
कभी गरीब की रोटी सा चांद |

इमारतों के मध्य से ही शायद
इतना अच्छा लगेगा चांद देखना |

पैसा नही तो शरीर बेच दिया जायेगा

पैसा नही तो शरीर बेच दिया जायेगा |
जीने के लिये कुछ तो किया जायेगा ||
किटाणू रहीत हो की सहीत हो,पानी है |
प्यास लगे तो जो मिले पीया जायेगा ||
अन्न सुई,रोटी धागा मिल जाये तो |
भूख से फटे इस पेट को सिया जायेगा ||
कल क्या करेंगे ये क्या सोचे अभी से |
चिंता ये है की आज कैसे जिया जायेगा ||
मात्र धन कमाने की कवायद को "रुह" |
मरेगा कोई तो कोई मार दिया जायेगा |

Thursday, February 15, 2007

कांक्रीट का जंगल

कांक्रीट का जंगल है,भयानक इन्सान बसते है |
संभल के रहिये,यहा आस्तीं के सांप डसते है ||
रोने की आवाज़ शोर ही मे दब कर रह जायेगी |
आपके दर्द पर लोग यहां इतनी जोर से हँसते है ||
हर कदम पर एक नया धोखा, एक नयी चाल है |
जहां कुछ दिखाई नही देता अक्सर वही फंसते है ||
दुश्वारियों की ज़मीं है किसी दलदल के मानिंद |
जितना चाहते है निकलना, उतना ही धसते है ||
दो जून की रोटि , तन ढाँकने को कोई कपडा |
"रुह" जाने कितने लौग इसी बात को तरसते है ||