Tuesday, April 17, 2007

तुम पुछते हो कि क्यो लिखता हूं ?

तुम पुछते हो कि क्यो लिखता हूं ?


सुबह जब सुरज निकलता है

सांझ जब आती है शरमा कर

चांद जब रुख से नकाब हटाता है

तुम्हे पता है तब गीत बनता है ?


क्या छंद झरने की कलकल का ,

क्या कोयल की कुहूक की कविता ,

क्या काव्य हवा की सरसराहट का ,

कभी सुना है तुम्हारे कानो ने ?


सडकों पर जब दंगे होते है,

इंसानीयत के चेहरे नंगे होते है ,

लहू से जब हाथ रंगे होते है,

उस पिडा को शब्द दिये है कभी ?


ये सब जो तुम नही करते महसुस,

मै शब्दों मे ढालता हूं , सो लिखता हूं |

1 comment:

Anonymous said...

tumsa achha koi kabhi likh hi nahi sakta!!
aur agar likh bhi liya toh achhi tarah bayan bhi nahi kar sakta!!!!
gud
vary gud!!!