Friday, May 18, 2007

पगडंडी

पगडंडी हूं मैं पगडंडी,
खेतों से इठलाती चली |

चने के पौधों को सहलाते,
गेहूं के पास से बल खाते,
इस छोर से उस छोर,
चली मैं मदमदाती चली |

कभी तीखी धूप मे हांफते,
आम की छांव मे सुस्ताते,
कभी बारीश मे नहाती मैं,
गीत ऋत का सुनाती चली |

नर-नारी , बच्चे ,मवेशी ,
ट्रेक्टर और ट्रक कभी-कभी,
हर आने जाने वाले को
लाती चली मै लेजाती चली |

आ गई अब उम्र की ढलान,
खत्म हो रहे खेत-खलिहान,
कभी छोडे थे कदमों के निशां,
ये पीढ़ी उनको मिटाती चली |

10 comments:

Sajeev said...

आ गई अब उम्र की ढलान,
खत्म हो रहे खेत-खलिहान,
कभी छोडे थे कदमों के निशां,
ये पीढ़ी उनको मिटाती चली |

ये दर्द सच्चा है....
अब मैं राशन की कतारों में नज़र आता hun
apne kheton se bichadne kii sazaa paataa hun

परमजीत सिहँ बाली said...

ऋषिकेश खोङके जी,आप की रचना पढकर गाँव की याद आ गई। सुन्दर रचना है। सत्य को दर्शाती ये पंक्तिया-
आ गई अब उम्र की ढलान,
खत्म हो रहे खेत-खलिहान,
कभी छोडे थे कदमों के निशां,
ये पीढ़ी उनको मिटाती चली |

ghughutibasuti said...

अच्छी लगी यह कविता । ऐसी ही एक पगडंडी मेरे बगीचे की बगल से जाती है । उसपर भी ट्रैक्टर और बैलगड़ियाँ चलती हैं कभी कभी । :)
घुघूती बासूती

Udan Tashtari said...

अच्छी लगी आपकी रचना.

Unknown said...

dewar reshi,

realy you have viry good vision to write these kink of lines .

keep it up

सुनीता शानू said...

बिलकुल सही लिखा है जीवन के लम्बे-लम्बे रास्तों को पल में छोटा कर देती है पगडंडी। जब भी कभी पगडंडी की बात चलती है गाँव की याद ताज़ा हो जाती है...
बहुत सुन्दर रचना है...बधाई

सुनीता चोटिया(शानू)

Anonymous said...

कभी तीखी धूप मे हांफते,
आम की छांव मे सुस्ताते,
कभी बारीश मे नहाती मैं,
गीत ऋत का सुनाती चली |

Aacha likha hai aapne....pagdandi ne bin kahe hi apni peeda zaahir kar di....keep writing Rishiji

राजीव रंजन प्रसाद said...

ऋषिकेश जी..
बहुत ही सुन्दर कविता है।

आ गई अब उम्र की ढलान,
खत्म हो रहे खेत-खलिहान,
कभी छोडे थे कदमों के निशां,
ये पीढ़ी उनको मिटाती चली |

आपको कोटिश: बधाई।

*** राजीव रंजन प्रसाद

शैलेश भारतवासी said...

पिछली दो-तीन रचनाओं से आपने मुझे बहुत प्रभावित किया है। आप बहुत अच्छे तरह से निर्जीव चीज़ों का मानवीकरण कर रहे हैं। शायद यह 'कंक्रीट का दरख़्त' की अगली कड़ी है। यह पंक्तियाँ प्रभावित करती हैं-

आ गई अब उम्र की ढलान,
खत्म हो रहे खेत-खलिहान,
कभी छोडे थे कदमों के निशां,
ये पीढ़ी उनको मिटाती चली |

Ujjawal Trivedi said...

Loved it man...dil le liya...keep it up this mood...really touchy