Sunday, September 30, 2007

मन के हाइकु


सोचा बहूत ,
निर्विचार ही रहा
उदास मन |

हवा से तेज,
दौडा मन पखेरु,
स्थिर ही रहा |

अक्षर झरे,
विलोपे रूप सारे,
रहा तो मन |

रुके ना मन ,
जल थल आकाश,
सहसा चले |

सहस्त्रधार,
काया एक अनेक,
एक ही मन |

9 comments:

Dr. Seema Kumar said...

सोचा बहूत ,
निर्विचार ही रहा
उदास मन |

अच्छी लगी ।

कृपया 'स्थीर' को सुधार कर 'स्थिर' कर लें ।

- सीमा कुमार

गिरिराज जोशी said...

मस्त लिखे हो!
मजा आ गया "रुह"
लिखते रहो...

बहुत-बहुत बधाई!!!

रंजू भाटिया said...

अच्छा लिखा है बधाई

विश्व दीपक said...

रुके ना मन ,
जल थल आकाश,
सहसा चले |

बहुत अच्छे हाइकु बन पड़े हैं , रूह जी। भाव भी बेहतरीन हैं। बस एक जिज्ञासा थी। जहाँ तक मुझे ज्ञात है, हाइकु "५-७-५" के नियम का पालन करता है, तो इस अनुसार
"विलोपे आकार सारे"
"शरीर एक अनेक"
ये दोनों "आठ मात्रिक" हो गए हैं। कृप्या शंका का समाधान करेंगे।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

ऋषिकेश खोडके रुह said...

जी विश्व दीपक 'तन्हा'जी आप का कहना ठिक है ,मैं प्रयास करुंगा की इसे सुधार सकुं

राजीव रंजन प्रसाद said...

अच्छी रचनायें है। तनहा जी का सुझाया परिवर्तन वांछित है।

*** राजीव रंजन प्रसाद

Udan Tashtari said...

अब सुधार के बाद बेहतरीन-संपूर्ण भाव के साथ. बधाई.

विश्व दीपक said...

रूह जी,
शुक्रिया , आपने मेरी सलाह पर ध्यान दिया । अब सारी खामियाँ दूर हो चुकी हैं। बधाई स्वीकारें।

Anonymous said...

बहूत अच्छा