Tuesday, November 6, 2007

दिप उत्सव

इस बार कुछ कारणों से दिप उत्सव अकेले ही मनाना पडेगा सो इस बात से मन जरा उदास हो रहा था और अचानक देखा तो मन से कुछ व्यथा बही और शब्दों का आवरण पहन ये गीत सामने आया |

अकेला हूं घर में तो लगता है, अंधेरा है|

द्वार पर दीपक , खिड़की मे सितारों की माला,
कुछ उंचा आकाश कंदिल भी मैने टांग डाला,
मगर दिप उत्सव ने यहाँ मुँह नही फेरा है,
अकेला हूं घर में तो लगता है, अंधेरा है|

बाहर उत्सव का शोर है, रात में भी भोर है,
सब चेहरे वही है मगर चेहरों का रंग और है,
ढुंढता हूं कहाँ प्रिये चेहरा तेरा सुनहरा है
अकेला हूं घर में तो लगता है, अंधेरा है|

द्वार पर पत्तों का मंडप,हर घर रांगोली ,
भेंटथाल के बहाने गुंजेगी हर घर बोली,
यहां मगर लगे की एकांत का पहरा है ,
अकेला हूं घर में तो लगता है, अंधेरा है|

5 comments:

समयचक्र said...

बहुत बढ़िया

Anupama said...

again a mindblowing presentation.keep writin....n keep glowing

Udan Tashtari said...

बेहतरीन मनोभाव चित्रित किये हैं, बधाई.

Sajeev said...

सुंदर

dipankar.kaul said...

dear, your thoughts are touching to the heart. it is marvelous.