बंदर मामा,बंदर मामा,
समझे खुद को सयाना,
चने रखे थे कुप्पी मे,
चाहता था उसको चुराना |
कुप्पी मे हाथ डाल कर,
सोचा उसने चने निकालु,
एक दो से होगा क्या,
पुरी मुठ्ठी भर डालूं |
पर उसका हाथ न निकले,
जोर से यहां वहां उछले,
बंदर मामा कुछ न समझे,
आखीर हाथ कैसे निकले |
उछल कुद मे कुप्पी फुटी,
चोट खाई बंदर मामा ने,
लौगो ने मार भगाया,
मिला न उसको दाना रे |
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8 comments:
very nice kavya. i liked it.
बाल गीत सुन्दर है...मैं अपनी बिटिया को भी सिखाउंगा..
*** राजीव रंजन प्रसाद
बंदर मामा की दुर्दशा पढ़कर मज़ा आ गया।
Rishi anna, aisa lag raha hai thode dino main tera profession change hone wala hai. Achhi kavita likhi hai...
hi ur poem is very nice realy ...................
but try to think about some difrent actvity of ur bandar mama . i think u will enjoy them more ................
karan kant sharma{iitd}
बहुत मजेदार कविता। आगे भी ऐसी कविताएँ प्रकाशित करते रहिएगा।
तुषार मुखर्जी।
ढालीगाँव (असम)।
भारत।
baaki sab to theek hai, par rishiji apke mama bandar kaise...
I am very sorry to heart your feelings chewnti :).
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