हमारी नदियां मर रहीं हैं।
देखता हूं की पानी की जगह,
हमारे ही मल मूत्र से भर रहीं है।
दो पीढ़ी पुराने जो बचे हैं लोग,
कहते हैं कि,
हम कभी नहाते थे इन नदियों में,
प्यास भी इसी पानी से बुझा लेते थे।
पास के गांव की महिलाए,
घड़ों में भर के ले जाती थी पानी।
मछुआरे जाल डाल कर,
कतला, रोहू, सिंघाल पकड़ा करते थे,
झींगा, केकड़ा
तो बच्चे भी पकड़ ले जाया करते थे अक्सर।
एक दादाजी कहते हैं,
नाव में कई बार आते थे वो दादी के साथ,
और घंटो नाव पर सिंघाड़े खाते हुवे बिताते थे,
रोमांटिक डेट कह लो आज के हिसाब से।
पिछली पीढ़ी वाले भी कहते हैं,
कुछ साल तो वो भी नदी मैं खेलें है,
फिर क्या हूवा पता नही,
अचानक आधुनिकता की बयार चली,
कंक्रीट के जंगल बढ़ते चले गए,
और भूख इतनी बढ़ी की,
की हम नदियों के किनारे भी खा गए,
नदी में उतरने वाली,
नालों, झरनों की पगडंडियों खो गई !
बदले में हमने ड्रेनेज पाइप उतार दिए,
नदी की छाती पर।
और अब !
अब
हमारी नदियां मर रहीं हैं।
देखता हूं की पानी की जगह,
हमारे ही मल मूत्र से भर रहीं है,
इंसानों के क्या ही कहने,
मछलियां भी अब,
अपनी ही नदी में
उतरने से डर रही है।
हमारी नदियां मर रहीं हैं।