मैं कुछ लिखना चाहता हूँ,
पर कुछ लिख नहीं पा रहा।
मैं कुछ लिखना चाहता हूँ,
कुछ अद्भुत, कुछ अकथ,
जो अव्यक्त, आकाशातीत हो,
पर कुछ लिख नहीं पा रहा।
मैं कुछ लिखना चाहता हूँ,
ऐसा जो समाज झिंझोड दे,
खोल दे सब शर्मनाक परते,
पर कुछ लिख नहीं पा रहा।
मैं कुछ लिखना चाहता हूँ,
सब अच्छा जो पीछे छुटा,
सब बुरा जो साथ चल रहा,
पर कुछ लिख नहीं पा रहा।
मैं कुछ लिखना चाहता हूँ,
वो जो सदियों जिवंत रहे,
जो मुझे सदियों जिवंत रखे
पर कुछ लिख नहीं पा रहा।
मैं कुछ लिखना चाहता हूँ,
जो मौन का स्पन्दन हो,
शब्दों से पहले जो बोले,
पर कुछ लिख नहीं पा रहा।
मैं कुछ लिखना चाहता हूँ,
आंसुओं की सुर्ख स्याही से,
गालों पर लिखी कविता सा,
पर कुछ लिख नहीं पा रहा।
मैं कुछ लिखना चाहता हूँ,
जो भीड़ में हो सच सा खड़ा,
जो जुल्म से आँख मिला सके,
पर कुछ लिख नहीं पा रहा।
मैं कुछ लिखना चाहता हूँ,
जो आत्मा तक हो नग्न,
ना कोई छल, ना कोई कपट,
पर कुछ लिख नहीं पा रहा।
मैं कुछ लिखना चाहता हूँ,
जो सुप्त मन करे आंदोलित,
जो प्रश्नों के दीप जला दे,
पर कुछ लिख नहीं पा रहा।
मैं कुछ लिखना चाहता हूँ,
शब्द जहां क्षितिज छू लें,
भाव जहां विलीन हो जाएं,
पर कुछ लिख नहीं पा रहा।
मैं कुछ लिखना चाहता हूँ,
जहाँ शब्द अर्थ त्याग दें,
जहाँ अर्थ विसर्जित हो जाए,
पर कुछ लिख नहीं पा रहा।
मैं कुछ लिखना चाहता हूँ,
पर शायद ये अ-लेखन ही
सम्भवतः सर्वोच्च रचना हो
जो लिखी जा नहीं पा रही।
मैं कुछ लिखना चाहता हूँ,
पर कुछ लिख नहीं पा रहा।

