मुझे देख कर,
आप मेरे प्रेम मे पड सकते है ,
खो सकते है मेरी आँखो के समंदर मे |
मुझे देख कर,
आप मुझे दार्शनिक भी समझ सकते है,
मेरे भाव सुकरात की तरहा लग सकते हैं आप को |
मुझे देख कर,
आप घ्रृणा भी कर सकते हैं मुझ से,
मेरे अंदर का जानवर आप को डरा सकता है |
मुझे देख कर,
आपका मन वात्सल्य से भर आ सकता है,
आप मेरे अंदर किसी शिशु को पा सकते हैं |
मुझे देख कर,
आप को लग सकता है यही नायक है,
मेरे चेहरे का तेज आपका मस्तक झुका सकता है |
मुझे देख कर,
आप को दया भी आ सकती है,
मेरी दयनीयता आपको रुला सकती है |
मुझे देख कर,
कई विचार उठेंगे आपके मन मे ,
क्योकी मेरे आयाम अनंत है,और क्षमतायें अनंत
मैं क्रृष्ण भी हो सकता हूं,
और मैं रावण भी |
मुझे देख कर,
आप सोचते होंगे मैं कौन हूं ?
मैं हूं मानव !
Monday, May 21, 2007
Friday, May 18, 2007
पगडंडी
पगडंडी हूं मैं पगडंडी,
खेतों से इठलाती चली |
चने के पौधों को सहलाते,
गेहूं के पास से बल खाते,
इस छोर से उस छोर,
चली मैं मदमदाती चली |
कभी तीखी धूप मे हांफते,
आम की छांव मे सुस्ताते,
कभी बारीश मे नहाती मैं,
गीत ऋत का सुनाती चली |
नर-नारी , बच्चे ,मवेशी ,
ट्रेक्टर और ट्रक कभी-कभी,
हर आने जाने वाले को
लाती चली मै लेजाती चली |
आ गई अब उम्र की ढलान,
खत्म हो रहे खेत-खलिहान,
कभी छोडे थे कदमों के निशां,
ये पीढ़ी उनको मिटाती चली |
खेतों से इठलाती चली |
चने के पौधों को सहलाते,
गेहूं के पास से बल खाते,
इस छोर से उस छोर,
चली मैं मदमदाती चली |
कभी तीखी धूप मे हांफते,
आम की छांव मे सुस्ताते,
कभी बारीश मे नहाती मैं,
गीत ऋत का सुनाती चली |
नर-नारी , बच्चे ,मवेशी ,
ट्रेक्टर और ट्रक कभी-कभी,
हर आने जाने वाले को
लाती चली मै लेजाती चली |
आ गई अब उम्र की ढलान,
खत्म हो रहे खेत-खलिहान,
कभी छोडे थे कदमों के निशां,
ये पीढ़ी उनको मिटाती चली |
Monday, May 14, 2007
कांक्रिट का दरख्त
आखीर वो गिर गया !
फलदार नही था पर
छाँव देता था आने जाने वालो को,
मैं भी कई बार उस छाँव मे सुस्ताया था |
कभी - कभी उसकी सुखी लकडीयां
कुछ मजदुर औरते ले जाती थी,
खाना बनाने को शायद |
पास के खंबे पर बैठे परींदे
अपना घोसला वहीं बनाते थे,
नया जीवन वहां किलकारीयां लेता था
कल्लू मोची उसके निचे ही
अपनी छोटी सी दुकान लगाता था
आखीर वो गिर गया !
खडा था जाने कब से
उस जमीन पर ,
अब जो प्लाँट हो कहलाती है,
और मैन रोड पर ही है |
सुना है ऐसीड डाला था उसकी जडों मे,
ताकी गिर जाये अपनेआप,
वन विभाग उसे काटने जो नही देता था |
आखीर वो गिर गया !
वो हराभरा दरख्त |
सुना है अब यहां
एक कांक्रिट का दरख्त लगेगा |
फलदार नही था पर
छाँव देता था आने जाने वालो को,
मैं भी कई बार उस छाँव मे सुस्ताया था |
कभी - कभी उसकी सुखी लकडीयां
कुछ मजदुर औरते ले जाती थी,
खाना बनाने को शायद |
पास के खंबे पर बैठे परींदे
अपना घोसला वहीं बनाते थे,
नया जीवन वहां किलकारीयां लेता था
कल्लू मोची उसके निचे ही
अपनी छोटी सी दुकान लगाता था
आखीर वो गिर गया !
खडा था जाने कब से
उस जमीन पर ,
अब जो प्लाँट हो कहलाती है,
और मैन रोड पर ही है |
सुना है ऐसीड डाला था उसकी जडों मे,
ताकी गिर जाये अपनेआप,
वन विभाग उसे काटने जो नही देता था |
आखीर वो गिर गया !
वो हराभरा दरख्त |
सुना है अब यहां
एक कांक्रिट का दरख्त लगेगा |
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