Wednesday, August 21, 2024

ज़माने की सियासत (ग़ज़ल)

ज़माने की सियासत में, कहाँ इन्सान रहता है।
अमीरी और ग़रीबी में, फसा हैरान रहता है।।

न देखा दर्द दुनिया का, न समझा भूख को अब तक।
हुकूमत के भरोसे पर, वही नादान रहता है।।

सभी  कुछ  है  वहां पैसों  भरा  घर  है  अगर  कोई ।
मगर भूखे के घर में, महज़  इक भगवान रहता है।।

बड़ा मुश्किल है जीना अब, किसी के  साथ रहना भी।
यहाँ हर शख़्स खुद में ही, बहुत वीरान रहता है।।

उठा आवाज़ तू  खुलकर  , बदल दे  दश्त के मंजर।
सियासत की फज़ा में रूह , जो तूफ़ान रहता है।।