मित्रों **सावन रुत** का पर्दापण हो चुका हैं और ये रुत जैसे रिमझिम वर्षा और हरियाली की द्योतक हैं उसी प्रकार काव्य के संसार में ये **विरह की रुत** मानी जाती हैं जहां प्रकृति न सिर्फ धरा अपितु मन को भी सींचती है और जहां पिया की याद और विरह को भारतीय परिपेक्ष में प्राचीन काल में इस रुत में महिलाओं के पीहर जाने से जोड़ा जाता है।
प्रस्तुत है सावन रुत के विरह भाव पर मेरी रचना ।
रुत सावन की आई सखी री,
जीयरा लागे अब ना पीहरवा।
पिया नगर से आयो रे उड़के,
रिमझिम रिमझिम मेघा बरसे,
अकुलाया मन पिया को तरसे,
हाल सजन का बताओ बदरवा ।
जीयरा लागे अब ना पीहरवा।
झूला परे सब अमुवा की डारि,
खेलें हिंडोला अब सखियां सारी,
उठत नाही , पग मोरे हुवे भारी,
रह रह मोहे आवे, याद सजनवा।
जीयरा लागे अब ना पीहरवा।
पोखरे भरे सब, बगिया हरियाई,
मोर नाचे और धरिनि इठलाई ,
जीयरा मोरा पर हाय चैन न पाई,
पग पीहर मोरे मन सासुरवा।
जीयरा लागे अब ना पीहरवा।
पगवा छम छम बाजे पैजन,
गीत मलहार सुनावे सावन,
कब तक बाट निहारूँ साजन,
प्रान निकसत जात बिरहवा।
जीयरा लागे अब ना पीहरवा।
No comments:
Post a Comment