Friday, January 24, 2025

उम्मीदों का बोझ (ग़ज़ल)

उम्मीदों का बोझ उठा कर खड़े रहे।
कंधों को ता-'उम्र झुका कर खड़े रहे।।

खुश रहने का फ़न मालूम नहीं उनको
मुखड़ा जो बेकार फुला कर खड़े रहे।।

आँधी तूफ़ानों ने घेरा है जब भी ।
अपना हम भी पैर जमा कर खड़े रहे।।

तन्हा सा दुनिया की जब भीड़ में लगा ।
आईना सामने लगाकर खड़े रहे ।।

अपना दुख क्या "रूह" ज़माने को कहते ।
बस अपने दिल को समझा कर खड़े रहे।।