Showing posts with label कविताएं-भाग 1. Show all posts
Showing posts with label कविताएं-भाग 1. Show all posts

Friday, April 7, 2023

रूहानी

इबादतगाहों मै बैठ कर,
लोबान के खुशबूदार धुएं के बादलों के बीच,
सब कुछ आपको रूहानी लग सकता है!
या माशूक की आंखों के समंदर में,
डूब जाना बड़ा रूमानी और रूहानी हो सकता है।
मगर
कैसे ये चश्मा!
पहनाऊं मै उनको ?

की जिनको
चांद माशूका सा खूबसूरत नही 
रोटी सा लज़ीज़ मालूम होता है,

की जिनके नाक,
कचरें की बदबू से भर नही जाती,
बल्की वो उसी कचरें से 
ट्रीट निकाल लाते है।

की जिनको,
प्लेस्टेशन प्लेजर का कुछ पता नहीं,
पंचर साइकिल का निकला हुवा पहियां
डंडी से घुमाते हुवे वो अटारी का गेम हो जाते हैं।

की जिनको,
पता नही मलमल की गर्म रजाई क्या होती हैं,
बेचारे चादर के छेद,
घुटने के निचे दबा कर ,
सर्द रातों में कोशिश करते हैं की
बर्फीली हवा रुक जाए शायद।

की जिनको,
कच्ची उम्र में 
छोड़ गया कोई किसी रेड लाइट एरिया में,
और अब मजबूर हैं जिस्म के सौदों के लिए
मरते दम तक,

किस्से बहुत है,
लाखों कहानियां हैं 

क्या रूहानी है इनके लिए
शायद!
जिंदा रहना

**ऋषीकेश खोड़के "रूह"**

Friday, September 11, 2020

पीढ़ा की आंच को ज़लने दो

अति पीढ़ा में 
दीर्घ काल तक बने रहना,
पीढ़ा को भुला देता है।

देखता हूं हम सब भी,
भूल चले हैं,
की किस अति भयावह संकट से,
 हम झुझ रहे हैं ।
भूल चले हैं,
की संकट नहीं टला है,
भूल चले हैं,
की सब कुछ ठीक नहीं हुआ है।
शतुरमुर्ग की तरह सर बालू में छुपा लेना,
खुद को दिलासा देना ही मात्र है,
मगर हम जानते हुवे भी ना सिर्फ,
अनभिज्ञ सा व्यवहार कर रहें हैं,
अपितू संकट को भयावह स्वरूप प्रदान करने के
वाहक बन रहे हैं।

देखता हूं मै,
अब सब निश्चिंक है,
की हम ठीक है और
कोई और है जो शायद नश्वर है।

रोजी रोटी,
कोई शायद इसीलिए मजबुर है,
पर सच में क्या सभी?
नहीं कुछ मजबुर नहीं ,
मात्र इंग्लिश शब्द के अनुसार बोर हैं।
रास्तों पर टूट पड़ने को आतुर,
मानसिक मनोरंजन के राही ये,
अपराधी ,समाज व सरकार के,
नहीं जानते,
मानवता ने क्या कुछ खोया है।

पीढ़ा में कोई नहीं बने रहना चाहता !
ना तुम , ना मै ।
और ना वो जो पापी पेट के लिए सड़क पर है,
पर सोचो क्या तुम जो अब भीड़ में हो,
क्या सच में जरूरी इस भीड़ का हिस्सा हो।

अति पीढ़ा में 
दीर्घ काल तक बने रहना,
पीढ़ा को भुला देता,
पर इस पीढ़ा की आंच को ज़लने दो।

*ऋषिकेश खो़डके "रूह"*

Sunday, February 10, 2019

दरिया

दरिया के उतरते पानी में
सब बहा दिया मैंने,
मन की बेचेनियाँ,
जीवन के दुख,
तमाम परेशानियां |

दरिया देखकार बोला
हँसते हुए,
पागल !
चढते पानी के साथ,
मै सब दुगना लौटाता हूं |

***ऋषिकेश खोड़के "रूह"***

Wednesday, August 19, 2015

****सावन गुज़रा जाता है****

बादलों के जंगल में
शिकारी,
जाल बिछा कर
पकड़ लो
बूंदों के सारे घोड़े ।

पैरों में नाल ठोक कर,
जरा दौड़ाओ,
बिजली के कोड़े बरसाओ ।

सावन गुज़रा जाता है,
कोई टप टप की आवाज़ नहीं अब तक ।

ऋषिकेश खोड़के "रूह"

Wednesday, December 8, 2010

कोई दिन

कोई दिन तो कभी मै खुद पर खर्च करूँ |

हर दिन , मिलते ही , टुकड़ों में बंट जाता है ,
इसके उसके नाम की तख्ती से बंध जाता है ,
कभी किसी तख्ती पर खुद का नाम भरूं ||

टप-टप पल हर एक पल टपक रहा है ,
पल मेरे नाम का जाने कौन झटक रहा है ,
कभी तो पल मै कोई खुद के लिए धरुं ||

कोई दिन तो कभी मै खुद पर खर्च करूँ |

Friday, February 20, 2009

सात रंग

निला रंग

सब स्थिर, शान्त, अव्याकुल और गहरा है,
मै देख सकता हूं इनमे दुर तक,
ये बातें करता है
आकाश पीरोजा आकाश

पिला रंग

तुम अम्बर हो ,
तुम हो सुर्य,
उपजाउ ये तेज तुम्हारा
मुझे भावो-विचारों से भर देता है,
दुर करता है संशय,
प्रकाश से प्राण प्रज्वलित करता है

लाल रंग

एक उर्जा,
एक उत्साह, उत्सुकता, व्यग्रता,
एक लालसा, आवेग,
तुम प्राण हो ,रक्त हो, तेज हो,
तुम ही अग्नी,तुम ही प्रेम,
तुम ही जीवन शक्ति |

नारंगी रंग

तुम अग्नी हो पर हवन की,
तुम उर्जा हो पर मन की,
तुम संतुलन हो जीवन का,
तुम साम्य हो तेज का ,सुर्य का,
इन्द्रगोप तुम आवरण ऋषी का |

हरा रंग

एक ताल, एक लय, अनुरूप,अविरोध
जीवन ,संतुलन,प्रक्रुति,
संवेदना , स्वास्थ , समृद्धि
तुम सत्य ही जीवन का विस्तार

जामुनी रंग

अनन्तता, असीमता
धीर, धीमा, गंभीर, स्थिर,
क्रुष्ण मार्गी
तुम हो ज्ञान

बैंगनी रंग

गुरु शिखर,
प्रभुत्व के स्वामी
तुम आदि, तुम अंत,
तुम उन्मत्त , उर्जा स्थायी,
तुम माया ,तुम ब्रम्ह

इन्द्रधनुष

मानव !
सात रंगो का ये इन्द्रधनुष
हां मानव तुम ही तो हो |

अनुपमा

क्या नाम दू मैं तुमको , अपरीचित

क्या पारस ! सोना हो गया हूं तुम्हारे छुने भर से
क्या प्राण ! जिवन्त हो गया मेरा मृत मन तुमसे
क्या वायू ! की कल्पना-पत्र मेरे उडा ले जाते हो
क्या झरना ! कलकल सी हँसी ,सुध बहा जाते हो
क्या ओस ! की शीतल हो जाता है तन-मन तुमसे
क्या संगीत ! की आते हो जब,नृत्यमय लगे सब

हर सुन्दर शब्द तुम्हारी अभिव्यक्ति लगता है,
किन्तु फिर भी तुमसे कुछ कम सा लगता है
कुछ नही की करु मैं जीससे तुम्हारी तुलना
अगोचर,अतुलनीय,अनअभिव्यक्त तुम अनुपमा

Tuesday, February 19, 2008

मतलब का शब्द

शब्दों के मतलब तो मिलते हैं,
मतलब का शब्द नहीं मिलता,
अक्षरों के मात्र संकर ही से,
अर्थ का फूल नहीं खिलता |

पत्थरों की पोशाकों के पिछे,
दरारें ही दरारें हैं सीनों मे,
बाहर पैबंद खुबसुरत है,
कोई अंदर से नही सिलता |

फासलों की दिवारें सब जगह,
मुल्क,प्रदेश,जाति,पंथ,भाषा,
लाल रंग तो गिरे है इनके लिये,
बस एक फ़ासला नही गिरता |

Friday, July 27, 2007

हां ! मैं तन बेचती हूं, तो क्या ?

मैं तन बेचती हूं !
हां ! मैं तन बेचती हूं, तो क्या ?

इस मंडी मे डाल गया था कोई अपना ही ,
कच्ची कली ही थी तब मै,
मुझे तो था कुछ भी पता नही |

उम्रभर का ग्रहण ,
मेरे जीवन पर लगा गया,
रातो को किसी की करने रोशन |

कई दिन और रातें भुखी ही काटी थी,
बेल्ट,लात और मुक्को से थर्थराई थी,
आखीरकार जोरजबरदस्ती से नथ किसी ने उतरवाई थी |

अब रोज़ कोई ना कोई जानवर,
नोचता है , खसोटता है जिस्म मेरा,
मर्द साले सब आदमखोर |

क्यो नहीं पुछते इनसे ,
जिन्होने अपन ज़मीर बेच डाला,
मैं तन बेचती हूं, तो क्या ?

Monday, July 23, 2007

अरे रुक जा रे बन्दे

अरे रुक जा रे बन्दे,

वो मर चुका है ,
वो जल चुका है |
अब आग लगाते हो कहाँ,
था आशीयाँ जिसका वो गुज़र चुका है |

बंद कर ये लहू बहाना,
नफरत की फसल उगाना,
काट ये आग उगलते नाखून,
जाने कितनी जिंदगी खुरच चुका है |

छाती तेरी कब ठंडक पायेगी,
मुर्दो की बस्ती तुझे कब तक भायेगी,
ये सफेदी का काला रंग कहां तक उडायेगा,
तेर घर भी रंग ये निगल चुका है |

अरे रुक जा रे बन्दे, रुक जा,
वापसी का दरवाजा हमेशा खुला है |

Monday, May 21, 2007

मुझे देख कर

मुझे देख कर,
आप मेरे प्रेम मे पड सकते है ,
खो सकते है मेरी आँखो के समंदर मे |

मुझे देख कर,
आप मुझे दार्शनिक भी समझ सकते है,
मेरे भाव सुकरात की तरहा लग सकते हैं आप को |

मुझे देख कर,
आप घ्रृणा भी कर सकते हैं मुझ से,
मेरे अंदर का जानवर आप को डरा सकता है |

मुझे देख कर,
आपका मन वात्सल्य से भर आ सकता है,
आप मेरे अंदर किसी शिशु को पा सकते हैं |

मुझे देख कर,
आप को लग सकता है यही नायक है,
मेरे चेहरे का तेज आपका मस्तक झुका सकता है |

मुझे देख कर,
आप को दया भी आ सकती है,
मेरी दयनीयता आपको रुला सकती है |

मुझे देख कर,
कई विचार उठेंगे आपके मन मे ,
क्योकी मेरे आयाम अनंत है,और क्षमतायें अनंत
मैं क्रृष्ण भी हो सकता हूं,
और मैं रावण भी |

मुझे देख कर,
आप सोचते होंगे मैं कौन हूं ?
मैं हूं मानव !

Monday, May 14, 2007

कांक्रिट का दरख्त

आखीर वो गिर गया !

फलदार नही था पर
छाँव देता था आने जाने वालो को,
मैं भी कई बार उस छाँव मे सुस्ताया था |
कभी - कभी उसकी सुखी लकडीयां
कुछ मजदुर औरते ले जाती थी,
खाना बनाने को शायद |
पास के खंबे पर बैठे परींदे
अपना घोसला वहीं बनाते थे,
नया जीवन वहां किलकारीयां लेता था
कल्लू मोची उसके निचे ही
अपनी छोटी सी दुकान लगाता था

आखीर वो गिर गया !
खडा था जाने कब से
उस जमीन पर ,
अब जो प्लाँट हो कहलाती है,
और मैन रोड पर ही है |

सुना है ऐसीड डाला था उसकी जडों मे,
ताकी गिर जाये अपनेआप,
वन विभाग उसे काटने जो नही देता था |

आखीर वो गिर गया !
वो हराभरा दरख्त |

सुना है अब यहां
एक कांक्रिट का दरख्त लगेगा |

Tuesday, April 17, 2007

तुम पुछते हो कि क्यो लिखता हूं ?

तुम पुछते हो कि क्यो लिखता हूं ?


सुबह जब सुरज निकलता है

सांझ जब आती है शरमा कर

चांद जब रुख से नकाब हटाता है

तुम्हे पता है तब गीत बनता है ?


क्या छंद झरने की कलकल का ,

क्या कोयल की कुहूक की कविता ,

क्या काव्य हवा की सरसराहट का ,

कभी सुना है तुम्हारे कानो ने ?


सडकों पर जब दंगे होते है,

इंसानीयत के चेहरे नंगे होते है ,

लहू से जब हाथ रंगे होते है,

उस पिडा को शब्द दिये है कभी ?


ये सब जो तुम नही करते महसुस,

मै शब्दों मे ढालता हूं , सो लिखता हूं |

चांद

इमारतों के मध्य से भी,
अच्छा लगता है चांद देखना |

कभी छत पर खडे हो कर,
कभी खिडकीयों से झांक कर,
और कभी बरामदे से ताकते हुवे,

कभी संकरी गलियों से,
कभी सडकों से गुजरते हुवे,
गर्दन थोडी सी उठा कर,

हर कोई चांद देखता है,
अपना - अपना नाम देता है |

कभी बच्चो का चंदा मामा,
कभी सुहागीन का तीज का चांद
कभी प्रेमी का चौदवी का चांद,
कभी गरीब की रोटी सा चांद |

इमारतों के मध्य से ही शायद
इतना अच्छा लगेगा चांद देखना |