इबादतगाहों मै बैठ कर,
लोबान के खुशबूदार धुएं के बादलों के बीच,
सब कुछ आपको रूहानी लग सकता है!
या माशूक की आंखों के समंदर में,
डूब जाना बड़ा रूमानी और रूहानी हो सकता है।
मगर
कैसे ये चश्मा!
पहनाऊं मै उनको ?
की जिनको
चांद माशूका सा खूबसूरत नही
रोटी सा लज़ीज़ मालूम होता है,
की जिनके नाक,
कचरें की बदबू से भर नही जाती,
बल्की वो उसी कचरें से
ट्रीट निकाल लाते है।
की जिनको,
प्लेस्टेशन प्लेजर का कुछ पता नहीं,
पंचर साइकिल का निकला हुवा पहियां
डंडी से घुमाते हुवे वो अटारी का गेम हो जाते हैं।
की जिनको,
पता नही मलमल की गर्म रजाई क्या होती हैं,
बेचारे चादर के छेद,
घुटने के निचे दबा कर ,
सर्द रातों में कोशिश करते हैं की
बर्फीली हवा रुक जाए शायद।
की जिनको,
कच्ची उम्र में
छोड़ गया कोई किसी रेड लाइट एरिया में,
और अब मजबूर हैं जिस्म के सौदों के लिए
मरते दम तक,
किस्से बहुत है,
लाखों कहानियां हैं
क्या रूहानी है इनके लिए
शायद!
जिंदा रहना
**ऋषीकेश खोड़के "रूह"**
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