कितना सुंदर लगता हैं।
कोई पैकर* लगता हैं।।
हँस कर बातें करना भी।
फूँका मंतर लगता है।।
दिल से दिल की दूरी का।
ज्यादा अंतर लगता है।।
आँखों से जब मय छलके।
क्यूँ फिर साग़र लगता हैं।।
आँगन गोया तीरथ है।।
मज्मा बाहर लगता है।।
भीगे होंठों को छूना।
बिल्कुल शक्कर लगता है।।
सूरत पूजन दिल बैठा।
ये अब काफ़र लगता हैं।।
मह-रुख़ जब छत पर निकले।
बदला मंज़र लगता है।।
दिल की बस्ती गुलशन है।
बाहर बंजर लगता हैं।।
क़तरा क़तरा रोशन है।
बुत पैग़़म्बर लगता है।।
ता'रीफ़ी ग़ज़लें कहना।
सबसे बहतर लगता है।।
लब से बहता इक झरना।
मानो कौसर लगता है।।
रूह-ए-'आलम सोचें तो।
अपना दिलबर लगता है।।
पैकर : शरीर, प्रतिमा, आकृति
साग़र : शराब पीने का गिलास
मह-रुख़ : चाँद-जैसी सूरत वाला
कौसर : स्वर्ग के एक कुंड का पानी
रूह-ए-'आलम : ब्रह्माण्ड की आत्मा
4 comments:
छोटे बहर की सुंदर गज़ल ...बढ़िया वाह्ह।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार 9 सितंबर २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
सुंदर रचना
सादर
बहुत सुंदर
सुंदर
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