शह और मात का खेल है।
राजनीति बड़ी चुड़ैल है।।
कांधे पर जुआ ज़िंदगी का
आदमी कोल्हू का बैल है।।
भीड़ ही भीड़ दूर तलक ।
सब और रेलम पेल है।।
अपने जी का करोगे कैसे।
दूसरों के हाथ नकेल है।
मन का घड़ा भरता नहीं।
क्या किसी के पास गुलेल है।।
**ऋषिकेश खोडके "रूह"**
3 comments:
बहुत अच्छी गज़ल सर
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १२ जनवरी २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
वाह
वाह!!!
बहुत सटीक..
लाजवाब👌👌
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