Wednesday, August 21, 2024

ज़माने की सियासत (ग़ज़ल)

ज़माने की सियासत में, कहाँ इन्सान रहता है।
अमीरी और ग़रीबी में, फसा हैरान रहता है।।

न देखा दर्द दुनिया का, न समझा भूख को अब तक।
हुकूमत के भरोसे पर, वही नादान रहता है।।

सभी  कुछ  है  वहां पैसों  भरा  घर  है  अगर  कोई ।
मगर भूखे के घर में, महज़  इक भगवान रहता है।।

बड़ा मुश्किल है जीना अब, किसी के  साथ रहना भी।
यहाँ हर शख़्स खुद में ही, बहुत वीरान रहता है।।

उठा आवाज़ तू  खुलकर  , बदल दे  दश्त के मंजर।
सियासत की फज़ा में रूह , जो तूफ़ान रहता है।।

12 comments:

Sweta sinha said...

समसामयिक ,बहुत बढ़िया गज़ल सर।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २३ अगस्त २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।

Abhilasha said...

ग़ज़ल का एक-एक शब्द यथार्थ का चित्रण करता है, बेहतरीन समसामयिक और सार्थक रचना सादर

Rishikesh khodke said...

बहुत बहुत धन्यवाद आपका

Rishikesh khodke said...

बहुत शुक्रिया आपका

Rishikesh khodke said...

बहुत शुक्रिया आपका

सुशील कुमार जोशी said...


वाह

आलोक सिन्हा said...

बहुत बहुत सुन्दर

Prakash Sah said...

वाह!
'गज़ल', जीवन का यथार्थचित्र।
अद्वितीय सृजन। बधाई।

Rishikesh khodke said...

शुक्रिया

Rishikesh khodke said...

शुक्रिया

Rishikesh khodke said...

धन्यवाद

हरीश कुमार said...

बेहतरीन