मेरी काव्य की बेल का बिज संभवत: अपने नाना के भजन सुनते-सुनते पडा, शब्दों के जादू ने मेरी अचेतन काव्य-बेल मे प्राण फूंक दिये |फि मेरी आई की जो समय के अनुरुप , अवसर विशेष पर त्व्रित कविता करति और बडे चाव से सबको सुनाती और सराहना पाती, ने अचेतन मे पडे काव्यबिज की सिंचाई की |दादी की कहानियां मुझे कविता के प्रारंभिक विषय उपलब्ध कराति रही , पर साहित्य साधना के लिये अत्यंत आव्श्यक अध्ययन सामग्री मेरे लिये मेरे बाबा ने जो स्वयं मराठी साहित्य मे काफी रुची रखते है बडी मात्रा मे उप्लब्ध करवाया , इसके अलावा समय-समय पर मेरे मामा ने जो स्वय अच्छे कवि एवं लेखक भी है मेरा उचित मार्गदर्शन किया और मेरी गलतीयों को सूधारने मे मेरी सहायता की| तो एक प्रकार से सहित्य कि ये बेल पारिवारिक लालन पालन से विकसित हुइ |
विभिन्न कवियों की रचनाये एवं वृहद साहित्य पढते-पढते लेखन शैली मे बदलाव भी आता रहा एवं अंतत: मैने स्वयं की एक वाचन पद्धति बना कर उसके अनुरुप लिखना प्रारंभ किया और आज मेरी समस्त रचनाये कविता,कहानी,गज़ल,लेख सारी विधायें मेरी इसी शैली मे हैं |
कालेज के दिनों मे मुझे गजलें सुनने - पढने का चाव हुवा और इस विधा मे भी लेखन प्रयास करता रहता हूं , हां इसी विधा के प्रभाव से मैने उपनाम "रुह्" अवश्य रख लिया |
आज ये मेरी काव्य-बेल रोज एक नया सोपान चढ रही है और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं मे प्रकाशित रचनाये और मेरी प्रकाशीत पुस्तक "शब्द-यज्ञ" इस बेल के पुष्प बन कर सरस्वती को नमन कर रही है |
"जाने क्या क्या लिखता रहता है बैठ कर | पढ कर देखें "रुह" के ज़ज़्बात,चलो आओ ||"