इक दरख़्त है
है मन के अंदर
तेरे इश्क़ का ।
रूमानी डालियों पर
अरमानों के पत्ते लहराते है,
तेरे रूप की धूप,
जुल्फों की हवा से
ज़िंदगी पाते हैं।
पर वो दिन था ना,
जब तुमने
ना जानें क्यूं मूंह फेर लिया।
इश्क़ का ये दरख़्त
सूखता जा रहा है,
अरमानों के पत्ते,
पीले से पड़ने लगे हैं,
कुछ सूख रहें हैं,
कुछ सूख कर गिर गए हैं।
जब तुम कभी भूले से
कदम रखोगी इस जानिब,
पैरों तले
अरमानों के सूखे पत्तों
की आवाज़ आयेगी,
पर क्या तुझ तक पहुंच पाएगी।
क्या पहुंच पाएगी ।
8 comments:
भावपूर्ण रचना।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १० मई २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
वाह
बहुत सुन्दर
अरमानों के पत्ते सूखते...
अत्यंत भावपूर्ण जवं सुंदर सृजन.
धन्यवाद श्वेता जी
धन्यवाद , ऐसे ही लिखने का हौसला बढ़ाते रहिए
धन्यवाद आलोक जी
धन्यवाद सुधा जी
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