Monday, September 16, 2024

विरहोत्कंठिता नायिका 1

तुम बिन यह हृदय शून्य सा,
जैसे नभ! बिन तारे।
तुम बिन यह जीवन मेरा,
वीणा तार बिना रे।
प्रेम की मीठी धारा में,
लवण विरह का घुल रहा है 
तुम बिन प्रिय इस मन को,
चुभ जैसे कोई शूल रहा है।

तुम्हारी छवि नयनों में,
जैसे सुधि का कोई दीप हो।
प्रभात बिना यह दीर्घ रात्रि,
जैसे पतझर का एक गीत हो।
तुम बिन यह काया मेरी,
जैसे नीरव बंसी बन गई,
ज्यों ज्यों मिलन की आस छूटी,
समस्त हृदय क्रिया थम गई।

यमुना के तट पर तेरी,
अब भी प्रतीक्षारत है सखी।
क्षुब्ध नयन पग धरे 
तुम बिन कब तक रहे रुकी।
आकाश में बिखरी हुई,
चंद्रिका भी अब नही ठहरती 
तुम बिन यह धरा मुरझाई,
पुष्प गुच्छों से नहीं संवरती 

मन व्याकुल मिलन पल को,
तेरी बंसी की तान सुनूँ।
मुरलीधर कान्हा नयनों में, 
बस मैं तुम्हें ही चुनूँ।
प्रिय, ये मन का तम मिटाओ,
हृदय के पाश को खोलो,
दर्शन अपने करवाओ,
कर्ण में मेरे तुम बोलो  

प्रिय! कब देखूँ वह हास,
जिससे जगत संजीवित हो।
अरज सुन लो राधा की ,
अब यह विरह सीमित हो।
तुम आओ प्रियतम कान्हा,
अब यह पीड़ा हर लो,
स्नेह-सुधा से भर दो मन,
प्रियतम! हाथ मेरा धर लो।


विरहोत्कंठिता नायिका संस्कृत नाट्यशास्त्र और काव्यशास्त्र में एक प्रमुख नायिका भेद है। इस नायिका का वर्णन उस स्त्री के रूप में किया जाता है जो अपने प्रिय से दूर होने के कारण अत्यधिक व्याकुल होती है। वह विरह की वेदना और मिलन की आकांक्षा से पीड़ित रहती है।

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