Wednesday, April 18, 2007

सर-पैर

सर बोला पैर से,
तू तुच्छ , मैं महान |

पैर बोला कैसे श्रीमान ?

सर बोला
रे मुरख , तुझे तो कुछ भी न पता है
देख मैं कहां शिखर पर,
और तू जमीन पर धुल मे पडा है |
देख मेरा स्थान सर्वोच्च है
और इसीलिये तु तुच्छ है |

पैर बोला भूलावे मत रहीये श्रीमान,
मुझ से ही है आप का मान,
मैं हूं खडा लेकर आप का बोझ,
मैं ही घुमाता हूं आप को रोज,
जिस दिन मै थक जाउंगा,
आप को शिखर से भूमी पर ले आउंगा |

ह्रदय जो सुनता था सर-पैर का विवाद,
उसने दोनो को दिलाया याद,
किस बात का विवाद करते हो,
क्यो आखीर झगडते हो,
ये शरीर अंगो की एक इकाई है,
और हमारी एकता मे ही
शरीर की भलाई है |

5 comments:

Thalesh said...

aapka prayaas sarahniya hai. hasya/vyanga ki sarthakta usme chupe bhav se hoti hai jo aapke is rachna mein spast jhalakti hai. choti si upmaon ko leke aapne aapsi samanvaya ki jo misaal di hai uske liye meri taraf se aapko badhaiyaan.

सुनीता शानू said...

ऋषिकेश जी बहुत सुन्दर! कितने सुन्दर रूप मे आपने एकता का परिचय दिया है,..यदि शरीर का कोई भी अंग काम करना बंद कर देगा तो सारा शरीर ही बेकार हो जायेगा,...वैसे ये एक गम्भीर बात कही है किसी ना किसी रूप मे परिवार,समाज़,
और देश पर भी लागू होती है,..
सुनीता(शानू)

Abha M said...

rishi keep it up. attemp achha hai aur aage jaanaa hai na?

शैलेश भारतवासी said...

रुह जी,

कविता को थोड़ा और विस्तारित करते तो मज़ा आता। क्योंकि कविता के शीर्षक तो लगता है कि व्यंग्य होगी, मगर व्यंग्य खिल नहीं पाया है। उदाहरण के लिए कवयित्री सुनीता चोटिया की एक कविता पढ़िए।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा said...

स्वागत है आपका