Wednesday, June 4, 2025

ज़िंदगी (ग़ज़ल)

जिंदगी तू कमाल  है ।  
तोहफा बेमिसाल है ।।  

खुद से खफा हों किसलिए ।  
हर घड़ी ये सवाल है ।।  
  
ठोकरें लाख राह  में  
रोक सकें मजाल  है ।।  
  
जीत पड़ाव आख़िरी ।  
हार तो एक  ख्याल है।।  
  
जिस्म को रूह छोड़ कर ।
जाए कहां सवाल है ।।

Saturday, May 31, 2025

इतना हत-बल किसलिये (ग़ज़ल)

इतना हत-बल किसलिये।
सत्य निर्बल किसलिये?

धर्म धंधा हो चुका ।
अब गंगा जल किसलिए?

कर्म तो बे मोल हैं ।
जात पर बल किसलिए?

भीख में हक़ मांगते।
लोक दुर्बल किसलिए?

एक सोफा चाहिये।
और जंगल किसलिए?

खेत में सीमेंट जब ।
हाथ में हल किसलिए?

सच अगर क़ाबिल नहीं।
रूह पागल किसलिए?

Friday, May 30, 2025

शब्द

 भावना मेरी  
शब्दों के सहयोग से,
अभिव्यक्त होती हैं जब,
कविता हो जाती ।

कोई शब्द 
अश्रु हो जाता है,
शब्द कोई कभी 
हृदय का स्पंदन।

कभी कभी शब्द 
विलाप भी हो जाते हैं।
शब्द कभी कभी,
अट्टहास का रूप धरते हैं।

शब्द कोमल रूप में,
अद्भुत ममता में ढल जाते हैं।
शब्द हर जिम्मेदारी लिए 
आदर्श पिता बन जाते हैं।

शब्द कभी होते हैं माध्यम 
चंद्र रूपणी नायिका।
शब्द बहुधा प्रेमिका के 
मृगनयन की माया दिखाते हैं।

शब्द दर्पण भी हैं ,
स्वयं का सत्य दर्शाते हैं।
शब्द शंखनाद भी हैं,
उद्घाटित करते हैं अंतर के स्वर।

शब्द अतंर में उद्घाटित,
ध्वनि हैं ध्यान की , शून्य की।
शब्द पवित्र अनुगूंज भांति,
रचयिता नाद ब्रम्ह हो जाते हैं।

शब्द चेतना जगाती,
गुरुमुख वाणी हैं,
शब्द अनादि काल से,
निर्वाण है समाधि है ।

शब्द मुखौटा हैं 
विरह, वेदना, विलाप,
प्रेम, प्रीत, प्रमोद,
माया, ममता, मां,
हर रूप का,। 
बस विचार करें ।

शब्द!
हां शब्द!
संचय कर के रखिए।
वैसे ही जैसे रखते थे ऋषि 
क्योंकि,
शब्द अद्भुत होते हैं ,
शब्द मात्र अर्थ नहीं ,
बहुधा अर्थात भी होते है ।

Sunday, May 25, 2025

**गोबरहा** (लघु कथा)

(धीमे स्वर में प्रारंभ)

प्राचीन भारत का गांव—सोनपुरा।
उपजाऊ ज़मीन, खेत जैसे सोना उगलते हों।
ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय—सब ऐश्वर्य में डूबे।
पर गांव की ड्योढ़ी के बाहर...बसती थी अछूतों की बस्ती जहां लोगों के लिए जीवन अत्यंत नारकीय भी था।
यह तब की बात है, जब जाती-व्यवस्था अपनी चरम पर थी और 'अछूत' कहे जाने वाले लोग समाज के सबसे निचले पायदान पर हुआ करते थे।

इसी बस्ती में था—कल्लू।
पत्नी लज्जो और दस साल के बेटे के साथ।
नाम भी क्या—कल्लू!
क्यों?
क्योंकि ऊँचे नाम रखना भी वर्जित था उनके लिए।

(धीरे-धीरे स्वर में बदलाव)
आज भी कल्लू मालिक के खेत में सुबह से बाजरा काट रहा है।
दोपहर को लज्जो आती है—हाथ में फिकार घास की रोटी और खुम्बी की सब्ज़ी।
कहती है—
"धनी अनाज तो है नहीं घर में...
ये जंगल से बीन लायी थी... सो बना लायी।"

कल्लू सर हिला कर बोलता है,
"चिंता मत कर लज्जो...
आज मालिक से अनाज मांगूंगा।"

लज्जो की आंखें चौड़ी हो जाती हैं—
"मांगूंगा!! इतनी हिम्मत कब से आ गई?"
कल्लू झेंप जाता है—
"मेरा मतलब... बिनती करूँगा...
दया आ जाये तो कुछ मिल जाए।"

(स्वर में विराम, फिर अचानक तेज़)
शाम को मालिक की बैठक लगती है।
मुनीम हिसाब देता है...
कल्लू हकलाता है—
"म... मालिक, आज की दिहाड़ी में अनाज मिल जाता तो..."

मालिक की आँखें जलने लगती हैं—
"हरामखोर! ज़बान बहुत चलने लगी है तेरी...
रोज़-रोज़ दिहाड़ी चाहिए?"

कल्लू हाथ जोड़ता है—
"मालिक, औकात नहीं है मेरी...
पर ..
बिटवा छोटा है... अ अ अनाज देखा नहीं उसने कभी।
कुछ अनाज... राम भली करेंगे।"

(व्यंग्यात्मक स्वर में)
मालिक हँसता है—
"मुनीम जी, देखा...!
हुज़ूर को अनाज खाना है!"
मुनीम मुस्कराता है और कुटिल स्वर में बोलता है—
"मालिक, गोबरहा दे दो... वहीं बहुत है।"

मालिक मुस्कराता है—
"सही कहा मुनीम...
जाओ कल्लू—बोरी भर गोबरहा ले जाओ।"

(मंथर गति से)
कल्लू की आँखें डबडबा जाती हैं।
वो झुक कर मालिक को प्रणाम करता है।
बोरी भर सूखा गोबर कंधे पर रख बस्ती लौटता है।
पीछे-पीछे ख़ुसपुसाहट सुनाई देने लगती है—
"आज तो गोबरहा मिला है कल्लू को!"

(तेज़ स्वर में उत्साह)
घर पहुंचते ही कल्लू चिल्लाता है—
"अरी ओ लज्जो! ए बिटवा! देखो मैं क्या लाया हूँ!"

लज्जो दौड़ती है— और पीछे से बच्चा भी 
(हैरानी और खुशी के मिश्रित स्वर में)
लज्जो बोरा देखती है और बोलती है —
"गोबरहा!"

बच्चा कोतूहल से बोरा खोलता है और 
बच्चा हैरान—
"बाबा! इसमें तो सूखा गोबर है... ये तो बास मारता है!"

(स्वर में गर्व और पीड़ा का सम्मिलन)
कल्लू मुस्कुराता है—
"नहीं बेटा... ये सिर्फ गोबर नहीं... ये अनाज है।
मालिक की गाय-बैलों ने जो अनाज खाया...
उसके बिना पचे दाने हैं इसमें।
छान लेंगे... सुखा लेंगे...
तो अनाज मिलेगा बिटवा!
(डबडबाए स्वर में)
हम नसीब वाले है बिटवा वरना मेरा बाप तो अनाज खाए बिना ही मर गया, पर तू खायेगा बिटवा, अनाज खायेगा । 
तू खाएगा... अनाज खाएगा।"

(उच्च स्वर, कंपकंपाता भाव)
"बस्ती वालों!
सुनो...
मेरा बिटवा अनाज खाएगा!
अनाज खाएगा!!"

कथा का आधार: https://www.themooknayak.com/dalit/did-you-know-gobaraha-the-dehumanizing-wage-of-the-untouchables

Saturday, May 24, 2025

कुछ गलत कुछ सही है (ग़ज़ल)

कुछ गलत, कुछ सही है ।
जिंदगी तो यही है ।।

दंभ की भीत देखो ।
बीच रिश्ते खड़ी है ।।

चीख़ गूँगों की सुनिए।
वेदना से भरी है।।

गाँव की देहरी भी अब ।
शहर से आ मिली है।।

रूह’ सच बोलने पर ।
क्रोध घृणा सही है ।।

Thursday, May 22, 2025

**मन का चोर**

मन का चोर मंजीरा बजाये,
भीतर भेद चुरा ले जाये।

राम नाम जाप सवेर करै वो,
रातें तम की फिर भी न जाये।

काया मंदिर, रूह है दीपक,
नाम की बाती अलख जलाये।

जोगी तन , मन नगर में घूमा,
मोह माया छम छम नचाये।

'रूह' कहे जोगी ध्यान लगा ले,
तीरथ विरथ सब अंतस समाये ।। 

Wednesday, April 30, 2025

दिल लगाने का (ग़ज़ल)

दिल लगाने का इनआम देना पड़ा।
अपने अहसास को नाम देना पड़ा।।

थरथराई ज़बां, लड़खड़ा भी गई ।
आँख को होंठ का काम  देना पड़ा ।।

हसरतों की तपिश में जले हम बहुत।
फिर हवाओं को इल्ज़ाम देना पड़ा।।

जब लिपटती रही धूप सी हिज्र की
वस्ल की छाँव को काम देना पड़ा।।

मैं जिसे रात सारी रहा ढूँढता ।
ख़्वाब में उसको आराम देना पड़ा।।

तितलियाँ रंग सारा गई लूट कर ।
बाग को खुद ही गुलफाम देना पड़ा।।

"रूह" काग़ज़ पे जज़्बात लिखता रहा ।
दास्ताँ को ग़ज़ल नाम देना पड़ा।।

Friday, April 4, 2025

जइयो नाहीं ओ घनश्याम रे (गीत)

जइयो नाहीं ओ घनश्याम रे, जइयो नाहीं
मोरे नैना तोका निहारते, जइयो नाहीं।।


हम घूँघट उठावें के मुख तोरा प्रान भयो,
प्रीत लागी ऐसी, हियरा भी जान गयो।
लाज की रेखा जोबन लांघ गयो राम रे।
जइयो नाहीं ओ घनश्याम रे, जइयो नाहीं


बंसी की तान तोरी, सुध बिसराय,
काम काज भुलायो, दईया सब हाय।
चित चपला बंसी तोरी रसधाम रे।
जइयो नाहीं ओ घनश्याम रे, जइयो नाहीं।


चरणन की धूलि हम मांग भर लीन्ह,
खुद को तोरी अर्धभागीनी कर लीन्ह।
तो बिनु नाहीं हमारो कोऊ ठाम रे।
जइयो नाहीं ओ घनश्याम रे, जइयो नाहीं।


गागरियन फोडन पनघट पधारों,
आवन की बाट जोहै मनवा हमारो,
फोड़ौ इन गगरियन, रख्यौ सिर पै थाम रे।
जइयो नाहीं ओ घनश्याम रे, जइयो नाहीं।

Thursday, March 27, 2025

बस जिक्र तिरा

बस जिक्र तिरा ही रूहानी है ।।
बाकी दुनिया में सब फ़ानी हैं ।।

जादू तेरी आँखों का  तौबा ।
भूला की पलकें झपकानी है ।।

तेरी यादें हैं गोया जुगनू ।
रातें  मेरी सारी नूरानी है ।।

तुझसे मिलना दीवाली जैसा।
बिछड़े तो लगता वीरानी है।।

तेरी महफ़िल में रूह की बातें।
दुनिया में सबको हैरानी है।।

Tuesday, March 18, 2025

**हाइकु** को **पहेलियों** के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास

बचपन में अमीर खुसरो की पहेलियां पढ़ीं थी, अभी ख्याल आया तो सोचा क्यों न हाइकु के साथ प्रयोग कर के देखा जाए।
तो प्रयोग करने का प्रयास किया है **हाइकु** को **पहेलियों** के रूप में प्रस्तुत करने का। 
पसंद आए तो बताएं 🙏🙏😊

**1. पहेली**
पाँव नहीं हैं,
थके ना वो फिर भी,
रोको तो भागे!

**उत्तर:**
पानी

**2. पहेली**
बड़ा ही हल्का,
सांस भर सीने में,
उड़ता फिरे!

**उत्तर:**
गुब्बारा

**3. पहेली**
 बाँटो जितना,
बढ़ता है उतना,
बड़ा अजीब!

**उत्तर:**
ज्ञान

**4. पहेली**
चपटा सिर,
मुंह है नुकीला,
नहीं है पेट।

**उत्तर:**
कील

**5. पहेली**
सफेद दाढ़ी,
हवा में वो उड़ता,
गिरे न नीचे।

**उत्तर:**
बादल 

**6. पहेली**
दो दांत वाला,
कट कट करता
काटता फिरे!

**उत्तर:**
कैंची

**ऋषिकेश खोडके "रूह"**

Monday, March 17, 2025

**उलटबांसी हाइकु**

पत्तों बिना ही 
दरख़्त ने दी छाया
धूप हंसी खूब।

घर था खाली,
बोल उठीं दीवारें,
चीखा सन्नाटा।

शून्य भीतर,
अनहद का नाद,
कौन सुनेगा?

प्यासी मछली,
जग वैतरणी में,
प्यास न बुझी ।

तन का बीज,
मन के तल पर,
खेत हैं मौन।

शब्द बहते 
गंगोत्री है मौन की,
सुनेगा कोई?

तेज धूप में,
देखो पकती छांव ,
कौन खायेगा?

अज्ञान तम,
ज्ञान दीपक तले,
सत दिखेगा?

वो अकिंचन
समाहित सबमें,
अंतस यात्रा।

Wednesday, March 12, 2025

होरी

होरी में छलिया छल कर गयो,
गुलाल अबीर हमे रंग कर गयो...
हम तो भिगोने की सोचत रहे,
 हमको ही कान्हा तर कर गयो...

होरी में छलिया छल कर गयो....

पिचकारी मारि के, तन भिगायों,
अबीर गुलाल मोहे मोहन लगायो...
हम सखियां सोचे कान्हा रंग लगावैं,
नटखट पर हाथन  छिटक कर गयो।

होरी में छलिया छल कर गयो....

होद में डारै की ठानी सबने,
राधा गोपि खींचे लाई, किसन ने,
पर छलिया प्रपंच सारा बुझ गयो,
खुद हमका होद गिराय कर गयो...

होरी में छलिया छल कर गयो....

हम रोवत बईठे संग सखिन के,
 नंदकिशोर तब बोलै हंसि के
होरी खेलें चलो सबै मिलन के 
प्रेम से रंगीलो सराबोर कर गयो...

होरी में छलिया छल कर गयो....

Friday, January 24, 2025

उम्मीदों का बोझ (ग़ज़ल)

उम्मीदों का बोझ उठा कर खड़े रहे।
कंधों को ता-'उम्र झुका कर खड़े रहे।।

खुश रहने का फ़न मालूम नहीं उनको
मुखड़ा जो बेकार फुला कर खड़े रहे।।

आँधी तूफ़ानों ने घेरा है जब भी ।
अपना हम भी पैर जमा कर खड़े रहे।।

तन्हा सा दुनिया की जब भीड़ में लगा ।
आईना सामने लगाकर खड़े रहे ।।

अपना दुख क्या "रूह" ज़माने को कहते ।
बस अपने दिल को समझा कर खड़े रहे।।