ईंट के मकां लेकिन घरबार कोई नही ।।
नकली फूल, नकली पत्ते कैसा गुलिस्तां है।
कोई खिजां नही यहां, बहार कोई नही।।
आख़िरी सफर को बैठे हैं रोक कर सांसे।
अर्थी को पर कांधा देने, कहार कोई नही ।।
हाकिमों के वादों से अब ऊब सी होती है।
लगता है कह दूं, अब की बार कोई नही।।
आलमी तौर-तरीको से नावाकिफ हूं बस।
लगे दुनियां को रूह सा गंवार कोई नही ।।
**ऋषिकेश खोडके "रूह"**
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