Sunday, May 25, 2025

**गोबरहा** (लघु कथा)

(धीमे स्वर में प्रारंभ)

प्राचीन भारत का गांव—सोनपुरा।
उपजाऊ ज़मीन, खेत जैसे सोना उगलते हों।
ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय—सब ऐश्वर्य में डूबे।
पर गांव की ड्योढ़ी के बाहर...बसती थी अछूतों की बस्ती जहां लोगों के लिए जीवन अत्यंत नारकीय भी था।
यह तब की बात है, जब जाती-व्यवस्था अपनी चरम पर थी और 'अछूत' कहे जाने वाले लोग समाज के सबसे निचले पायदान पर हुआ करते थे।

इसी बस्ती में था—कल्लू।
पत्नी लज्जो और दस साल के बेटे के साथ।
नाम भी क्या—कल्लू!
क्यों?
क्योंकि ऊँचे नाम रखना भी वर्जित था उनके लिए।

(धीरे-धीरे स्वर में बदलाव)
आज भी कल्लू मालिक के खेत में सुबह से बाजरा काट रहा है।
दोपहर को लज्जो आती है—हाथ में फिकार घास की रोटी और खुम्बी की सब्ज़ी।
कहती है—
"धनी अनाज तो है नहीं घर में...
ये जंगल से बीन लायी थी... सो बना लायी।"

कल्लू सर हिला कर बोलता है,
"चिंता मत कर लज्जो...
आज मालिक से अनाज मांगूंगा।"

लज्जो की आंखें चौड़ी हो जाती हैं—
"मांगूंगा!! इतनी हिम्मत कब से आ गई?"
कल्लू झेंप जाता है—
"मेरा मतलब... बिनती करूँगा...
दया आ जाये तो कुछ मिल जाए।"

(स्वर में विराम, फिर अचानक तेज़)
शाम को मालिक की बैठक लगती है।
मुनीम हिसाब देता है...
कल्लू हकलाता है—
"म... मालिक, आज की दिहाड़ी में अनाज मिल जाता तो..."

मालिक की आँखें जलने लगती हैं—
"हरामखोर! ज़बान बहुत चलने लगी है तेरी...
रोज़-रोज़ दिहाड़ी चाहिए?"

कल्लू हाथ जोड़ता है—
"मालिक, औकात नहीं है मेरी...
पर ..
बिटवा छोटा है... अ अ अनाज देखा नहीं उसने कभी।
कुछ अनाज... राम भली करेंगे।"

(व्यंग्यात्मक स्वर में)
मालिक हँसता है—
"मुनीम जी, देखा...!
हुज़ूर को अनाज खाना है!"
मुनीम मुस्कराता है और कुटिल स्वर में बोलता है—
"मालिक, गोबरहा दे दो... वहीं बहुत है।"

मालिक मुस्कराता है—
"सही कहा मुनीम...
जाओ कल्लू—बोरी भर गोबरहा ले जाओ।"

(मंथर गति से)
कल्लू की आँखें डबडबा जाती हैं।
वो झुक कर मालिक को प्रणाम करता है।
बोरी भर सूखा गोबर कंधे पर रख बस्ती लौटता है।
पीछे-पीछे ख़ुसपुसाहट सुनाई देने लगती है—
"आज तो गोबरहा मिला है कल्लू को!"

(तेज़ स्वर में उत्साह)
घर पहुंचते ही कल्लू चिल्लाता है—
"अरी ओ लज्जो! ए बिटवा! देखो मैं क्या लाया हूँ!"

लज्जो दौड़ती है— और पीछे से बच्चा भी 
(हैरानी और खुशी के मिश्रित स्वर में)
लज्जो बोरा देखती है और बोलती है —
"गोबरहा!"

बच्चा कोतूहल से बोरा खोलता है और 
बच्चा हैरान—
"बाबा! इसमें तो सूखा गोबर है... ये तो बास मारता है!"

(स्वर में गर्व और पीड़ा का सम्मिलन)
कल्लू मुस्कुराता है—
"नहीं बेटा... ये सिर्फ गोबर नहीं... ये अनाज है।
मालिक की गाय-बैलों ने जो अनाज खाया...
उसके बिना पचे दाने हैं इसमें।
छान लेंगे... सुखा लेंगे...
तो अनाज मिलेगा बिटवा!
(डबडबाए स्वर में)
हम नसीब वाले है बिटवा वरना मेरा बाप तो अनाज खाए बिना ही मर गया, पर तू खायेगा बिटवा, अनाज खायेगा । 
तू खाएगा... अनाज खाएगा।"

(उच्च स्वर, कंपकंपाता भाव)
"बस्ती वालों!
सुनो...
मेरा बिटवा अनाज खाएगा!
अनाज खाएगा!!"

कथा का आधार: https://www.themooknayak.com/dalit/did-you-know-gobaraha-the-dehumanizing-wage-of-the-untouchables

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